दलित-आदिवासी साहित्य के सांस्कृतिक संदर्भ
-Dr.Dilip Girhe
हजारों वर्षों से दलित-आदिवासियों का जीवन जिस परिवेश में गुजरा उन परिवेश से ही दलित-आदिवासी साहित्य का संबंध जुड़ा हुआ है। क्योंकि दलित-आदिवासियों का जीवन अलग-अलग दुनिया से जुड़ा हुआ है। इन दोनों समुदाय के सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ अगल-अगल पाए जाते हैं। भले ही कुछ समानताएं हो किन्तु उनके जीवन संघर्ष में विषमता देखी जाती है। दोनों समुदायों के गुट स्वतंत्र रूप से होते हैं। इनकी वैचारिकी में भी अन्तर पाया जाता है। इसका संदर्भ डॉ. विनायक तुमराम इस प्रकार से देते हैं कि-“यह समझ लेना चाहिए कि इनकी वैचारिकता तथा मानसिकता में अन्तर है। जिस तरह दलितों के हिस्से में गाँवों के बाहर जीवनयापन करना आया, उसी तरह से आदिवासियों के हिस्से में गाँवों से कई मील दूर जंगलों, वनों, गिरिकुहरों में आश्रय पाने की मजबूरी आई। वर्णव्यवस्था की आँच जैसे दलितों को लगी वैसे ही आदिवासियों को भी लगी। वर्गबली एकलव्य इसका मुखर उदाहरण है। दलितों पर जो अन्याय और अत्याचार हुआ, उनका जो शोषण हुआ, वैसा ही अन्याय-अत्याचार और शोषण आदिवासियों का भी हुआ। हाँ! इस अन्याय-अत्याचार तथा शोषण का स्वरूप भिन्न है और उसकी तीव्रता भी कम-ज्यादा है। पर एक बात माननी ही होगी कि जिस जाति-व्यवस्था ने दलितों को जर्जर किया, उनकी मनुष्यता को नकारा, सहस्त्रों साल अछूत बनकर जीने के लिए बाध्य किया तथा पशुवत व्यवहार किया, उस क्रूर कठिन जाति-व्यवस्था की आँच वनों-जंगलों की जनजातियों तक प्रायः पहुंची ही नहीं। जिस विषमता की ज्वालाग्नि में दलित जल उठा, वह विषमता की ज्वालाग्नि जंगलों-वनों तक, गिरि-कुहरों तक उतनी तेज गति से नहीं पहुंच पाई। उसकी तीव्रता का अहसास भी आदिवासियों को नहीं हुआ।”1
आदिवासी समाज हजारों वर्षों से नीले आकाश की छत के नीचे, हरे-भरे वनों में, नीले पहाड़ी इलाकों में, पशु-पक्षिओं के ध्वनियों के परिवेश में जैसे प्रकृति के विविध उपादानों के सानिध्य में रहकर अपना जीवनयापन करता आया है। उनको सोने के लिए प्रकृति, सिरहाने के लिए पत्थर और सोते समय ओढ़ने के लिए चाँद-तारे यही उनका जीवन है। वह प्रकृति ने दिए हुए हर एक आदेश का पालन करता आया है। कंदमूल खाकर अपना पेट भरता है। उनकी रोजमर्रा की जिन्दगी में जगलों में भटकना, नदी-नालों एवं जलाशयों जी भर के तैरना आदि है। “अतः यह सहज ही है कि बाह्य-जगत से सम्बन्ध रखने की, उसके परिवर्तन पर गम्भीर रूप से विचार करने की तथा उसके अनुसार, अपने को बदलने की आवश्यकता उन्होंने महसूस ही नहीं की। जंगलों-गिरी-कुहरों का स्वतन्त्र-मुक्त वातावरण, यही उनकी दृष्टि से समता तथा स्वतन्त्रता का वातावरण था, यही उनकी अपनी न्याय-व्यवस्था भी थी। विविधता से सजी उनकी प्राचीनतम संस्कृति ने उनका जीवन-पथ कब का निश्चित कर डाला था।”2
अतः दलित-आदिवासी साहित्य के सांस्कृतिक परिवेश के सन्दर्भ में ‘आदिवासी साहित्य यात्रा’ पुस्तक में लिखा गया है कि “यह सत्य मान लेना ही होगा कि गाँव के बाहर जीते हुए भी गाँव के भीतर के जन-जीवन तथा व्यवहार से दलितों का सम्पर्क तथा सम्बन्ध किसी न किसी रूप में कायम ही था। आदिवासी-समूह गाँव के जीवन तथा उनके जीवन के प्रभाव-क्षेत्र से सैकड़ों योजन दूर था। गाँव के भीतर के सामाजिक तथा सांस्कृतिक व्यवहार के साथ दलितों का जैसा सम्बन्ध और सम्पर्क था, वैसा आदिवासियों का नहीं था। कुसुम नारगोलकर के अनुसार- "अछूतों को चाहे हिन्दू समाज के शूद्र-सेवक के रूप में ही क्यों न हो, किन्तु एक विशिष्ट सामाजिक स्थान दिया गया था, परन्तु आदिवासियों का श्रेष्ठ या कनिष्ठ ऐसा कोई स्थान नहीं था। वे उपेक्षित थे। हम मनुष्य हैं-यह अहसास ही आज तक उनमें पैदा नहीं हुआ है।"
इसके परिणामस्वरूप आदिवासियों के हिस्से में, जो एकाकीपन आया, उसकी तीव्रता दलितों के हिस्से में आए एकाकीपन से निश्चित रूप से कहीं अधिक थी, इसलिए दलितों और आदिवासियों की जीवनशैली में जो लाक्षणिक अन्तर है, वह सांस्कृतिक भिन्नता के कारण है, अनुभूति के निरालेपन के चलते है। दलितों तथा आदिवासियों में दिखाई देनेवाली भावनात्मक दूरी का कारण उनकी मानसिकता में खोजना पड़ता है। उन दोनों के हिस्से में, जो अकेलापन-एकाकीपन है, उसका कारण भी उनकी स्वरूप भिन्नता तथा दोनों के जीवन-संघर्ष में खोजना पड़ता है।
26 फरवरी 1988 के दिन महाराष्ट्र सरकार की 'आदिवासी संशोधन तथा प्रशिक्षण संस्था' की रजत जयन्ती के अवसर पर जव्हार, जिला ठाणे, में आयोजित 'आदिवासी साहित्यिक प्रशिक्षण शिविर' का उद्घाटन करते समय 'दैनिक केसरी', पुणे के सम्पादक डॉ. शरदचन्द्र गोखले जी ने, जो कहा, वह अत्यन्त मार्मिक था- "दलित तथा आदिवासियों के आसपास की सांस्कृतिक चौखट एवं वातावरण भिन्न है। आदिवासियों की संस्कृति की अपनी एक समृद्ध चौखट है। उनकी संस्कृति में मिट्टी की सोंधी महक है। इस कारण आदिवासी साहित्य दलित-साहित्य की नकल न बनकर, उसकी अपनी एक शैली तथा संरचना होनी चाहिए।" कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि दलितों तथा आदिवासियों के जीवन-सन्दर्भ एक से नहीं है। इन संदर्भों को प्रकाशमान करने का दोनों का सामर्थ्य भी एक-सा नहीं है और फिर अपनी-अपनी सम्पन्न धरोहर का वस्तुनिष्ठ-बोध लेने की कुव्वत दोनों में ही नहीं है। दलितों तथा आदिवासियों के स्वत्व-स्वप्नों का रक्तसम्बन्ध भले ही ना हो, तो भी समाज-व्यवस्था की पुनर्रचना का उनका इरादा एक ही है, जो नेक भी है। आदिवासी साहित्य का स्वतन्त्र मंच क्यों हो, यह बात उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाती है।”3
निष्कर्ष: अतः उपरोक्त अध्ययन से यदि निष्कर्ष निकला जाए तो दोनों साहित्य में ‘संघर्ष’ है। लेकिन इन संघर्ष के मार्ग अलग-अगल मिलते हैं। दलित साहित्य ज्यादातर बुद्ध, फुले, शाहू, अम्बेडकर की प्रेरणा से उभरकर आया हुआ मिलता है। तो आदिवासी साहित्य का अस्तित्व अलग है। भले ही वर्तमान में बुद्ध, फुले, शाहू, अम्बेडकर की प्रेरणास्रोत बन गया है। आदिवासी साहित्य का मुख्य संघर्ष ‘जल-जंगल जमीन’ बचाने के लिए दिखता है।
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संदर्भ:
1.गुप्ता, रमणिका (2008).आदिवासी साहित्य यात्रा. राधाकृष्ण प्रकाशन: नई दिल्ली. पृ.31
2.वहीँ. पृ. 32
3.वहीँ. पृ. 32-33
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