रोज केरकेट्टा द्वारा प्रस्तुत: नदी की कथा (आदिवासी लोककथा)
"सांखी और कोइली दो बहनें थीं। दोनों की शादी महाकानगर में हुई थी। जंगल-पहाड़ से भरे इलाके में शादी होने के कारण वे दोनों नैहर नहीं जा पाती थीं। बहुत दिन बीत जाने पर एक दिन पहले से तय करके दोनों बहनें हाट में मिलीं। अपने दुःख- सुख की बातें करने के पश्चात् दोनों ने तय किया कि नैहर जाना चाहिए। दोनों ने सोचा कि ससुराल के लोग अकेले भेजेंगे नहीं, इसलिए भागकर जाना होगा। भागने के लिए 'भुरका' तारा उगने के समय घर से निकलना होगा। बड़ी बहन कोइली ने छोटी बहन सांखी को हिदायत देते हुए कहा कि जब वह बाहर निकल जाए, तो पीछे मुड़कर न देखे। भागती ही रहे। वे एक जगह फिर मिलेंगी और साथ-साथ आगे बढ़ेंगी।
नियत समय पर दोनों बहनें अपने-अपने घर से निकलीं। सांखी की ससुराल घने जंगल और पहाड़ों से घिरी थी। वह आगे बढ़ने लगी। कुछ दूर निकल जाने के बाद वह दीदी की हिदायत भूल गई। कोई पीछा कर रहा है या नहीं, यह जानने के लिए उसने पीछे मुड़कर देखा। हाय दइया, बड़ा अनर्थ हो गया। एक काँटा उसकी आँखों में चुभ गया। वह कानी हो गई। दर्द के मारे वह थोड़ी देर वहीं बैठ गई। दर्द कम होने पर आगे बढ़ी। दोनों बहनें चलते-चलते एक निश्चित जगह मिलीं। मिलने पर गले लगकर दोनों खूब रोई। कोइली ने सांखी की दशा देखी। वह विचलित भी हुई और गुस्सा भी।
"मैंने मना किया था न पीछे देखने से। देखा, बात नहीं मानने से कैसा अनर्थ होता है?" कोइली ने उलाहना-सा देते हुए कहा। फिर वहाँ थोड़ी देर सुस्ताकर दोनों बहनें आगे बढ़ीं और बारीपदा नैहर पहुँच गई। जिस स्थान पर सांखी और कोइली मिलीं, वहाँ वेदव्यास (उड़ीसा) बसा है। ये दोनों बहनें ही संख और कोइल नदी हैं, जो मिलने के बाद ब्राह्मणी महानदी में मिल जाती हैं।"
टिप्पणी : आदिवासी समाज में नदियों के रास्ते 'मानवीकरण' द्वारा कथा के विषय बन जाते हैं। आदिवासी कल्पना में नदियाँ भी सखियाँ होती हैं। उनमें न द्वेष होता है, न ही ईर्ष्या। यह एक ऐसी ही रूपक कथा है। (संपादक)
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संदर्भ:
रमणिका गुप्ता-आदिवासी सृजन मिथक एवं अन्य लोककथाएं
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