वंदना टेटे की कविता 'कविताओं वाली नदी' में चित्रित प्राकृतिक संवेदना
-Dr.Dilip Girhe
"कविताओं वाली नदी"
अब भी कभी
मन चाहता है
कविताओं की नदियों में डूबती-उतरती
गोते लगाऊं
पहाड़ों की ढलान पर
गाती हुई उतरूं
जटंगी के खेतों में
पीली फ्रॉक पहने
छुप जाऊं
और दादा से कहूं -
ढूंढो मुझे।
पके जामुन से रंग लेकर
जब बादल पहाड़ों से
सहिया जोड़ने चलें
तो उन्हें गले मिलते देखूं।
पर कैसे करूं
मैं पूरी अपनी चाहना ?
कविताओं वाली नदी
सूखने लगी है
गीतों के पहाड़
उजाड़ हैं
जंटगी के खेतों में
हिंडालको की माइंस खुदी हैं।
सूख गए हैं पोखरे
बादल पहाड़ों से
आंख चुरा रहे हैं
और जंगल से गुजरती हवा
गुनगुनाना गुदगुदाना भूल गई है।
बस फुसफुसाती हुई
न जाने क्या कहती है
कि मन अंदेशे से भरे
दह में डूबता उतरता है।
और कविताओं की नदियों में
डूबने की इच्छा
बंदूक की बटों
और बूटों के नीचे
कराहती रहती है
दिन-रात।
कविता की व्याख्या :
झारखंड की आदिवासी कवयित्री वंदना टेटे ने आदिवासी कविता में अपनी पहचान कायम रखी है। वे हिंदी एवं खड़िया भाषा में अपना काव्य लेखन करती है। उन्होंने 'कोनजोगा' संग्रह के माध्यम से झारखंड के प्राकृतिक सौदर्यं का चित्रण करने का प्रयास किया है। वे 'कविताओं वाली नदी' में अपनी प्राकृतिक संवेदनशीलता को दर्शाती है। वह इसमें 'बचपना' प्रवृति को भी व्यक्त करती है। वे कहती है कि वह कविताओं वाली नदी में अब भी और कभी भी गोते लगाना चाहती है। यानि की प्राकृतिक सानिध्य में या जिस भी परिवेश में नदी-नाले बहते रहते हैं। उस नदी-नालों में कवयित्री गोते लगाकर आनंद लेना चाहती है।
प्रकृति के गोद में जितने भी बड़े-बड़े पहाड़ पर्वत हैं उन सभी पर गीतों को गाकर मन प्रसन्न करना चाहती है। और प्रकृति के इर्दगिर्द सभी खेत-खलिहानों में वह पिला रंग का फ्रोक पहनकर अपने दादा से चुपके से कहना चाहती है कि वह अब मुझे ढूंडो! हम देखते हैं कि बारिश के दिन शुरू होने से पहले जामुन के पकने का मौसम रहता है। इस मौसम को भी कवि ने नहीं छोड़ा। वे कहती है जामुन पकने के पहले जब जामुन रंग बदलते हैं, तो बादल भी अपना रंग काला करते हैं। यानि वह भी अपना रंग बदलते हैं।
बड़े-बड़े पहाड़ों ने बड़ी-बड़ी सडकों की जगह ले ली और उसमें कविताओं वाली नदी के सानिध्य में जो भी गीतों का गायन होता था वह भी सूखा पड़ा मिलने लगा है। और यह सब देखकर बादल भी अपने आँख छुपाते हुए मिल रहे हैं। जो हवा पेड़ -पौधों के कारण गीतों को गुनगुनाने लगती थी। वहीं हवा आज हमें भी शांत हुई दिखती है। जब से कविताओं वाली नदी पर आक्रमण होते गए है। तब से न जाने क्या क्या परिवर्तन हुए जिसके चलते प्राकृतिक संपदा खत्म होती गई है। अब इस कविताओं वाली नदी के नीचे कवि को 'बारूद और बन्दूक' चलने की आवाज़ नज़र आ रही है।
इस प्रकार से झारखंड की आदिवासी कवयित्री वंदना टेटे अपनी कविता 'कविताओं वाली नदी' प्रकृति की संवेदनशीलता को अभिव्यक्त करती है।
संदर्भ:
वंदना टेटे-कोनजोगा (काव्य संग्रह) पृ.15-16
आशा है कि आपको यह कविता और उसकी व्याख्या अच्छी लगी होगी। इस पोस्ट को शेयर करें। साथ ही ब्लॉग से ऐसे ही नई-नई पोस्ट को पढ़ने के लिए ब्लॉग को निम्नलिखित लिंक के माध्यम से फ़ॉलो करें...धन्यवाद!
इसे भी पढ़िए...
- मराठी आदिवासी कविता में संस्कृति व अस्मिता का चित्रण
- महादेव टोप्पो की काव्यभाषा:मैं जंगल का कवि
- जिन्होंने कभी बीज बोया ही नहीं उन्हें पेड़ काटने का अधिकार नहीं है:उषाकिरण आत्राम
- महादेव टोप्पो की 'रूपांतरण' कविता में आदिवासी की दशा और दिशा
- डॉ. राजे बिरशाह आत्राम की कविता में आदिवासी अस्मिता का संकट
- आदिवासी हिंदी कविता का संक्षिप्त परिचय
- आदिवासी कविता क्या है ?
- हिंदी एवं मराठी आदिवासी काव्य की पृष्ठभूमि
- हिंदी और मराठी आदिवासी कविताओं में जीवन-संघर्ष
- समकालीन मराठी आदिवासी कविताओं में वैचारिक चुनौतियाँ(विशेष संदर्भ: मी तोडले तुरुंगाचे दार)
- ‘आदिवासी मोर्चा’ में अभिव्यक्त वैश्वीकरण की असली शक्लें
- 19 वीं शताब्दी के अंतिम दशकोत्तर आदिवासी साहित्य में विद्रोह के स्वर’
- इक्कीसवीं सदी की हिंदी-मराठी आदिवासी कविताओं में जीवन संघर्ष
- हिंदी काव्यानुवाद में निर्मित अनुवाद की समस्याएँ व समाधान (विशेष संदर्भ : बाबाराव मडावी का ‘पाखरं’ मराठी काव्य संग्रह)
- तुलनात्मक साहित्य : मराठी-हिंदी की अनूदित आदिवासी कविता
- समकालीन मराठी आदिवासी कविताओं में वैचारिक चुनौतियाँ (विशेष संदर्भ : माधव सरकुंडे की कविताएँ)
- आदिवासी काव्य में अभिव्यक्त आदिवासियों की समस्याएँ
- आदिवासी कविता मानवता के पक्षधर का दायित्व निभाती है
ब्लॉग से जुड़ने के लिए निम्न ग्रुप जॉइन करे...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें