गुरुवार, 12 सितंबर 2024

वंदना टेटे की कविता 'कविताओं वाली नदी' में चित्रित प्राकृतिक संवेदना || आदिवासी कविता || Aadiwasi Kavita ||

 

वंदना टेटे की कविता 'कविताओं वाली नदी' में चित्रित प्राकृतिक संवेदना 

-Dr.Dilip Girhe 

"कविताओं वाली नदी"

अब भी कभी 

मन चाहता है 

कविताओं की नदियों में डूबती-उतरती 

गोते लगाऊं 

पहाड़ों की ढलान पर 

गाती हुई उतरूं 

जटंगी के खेतों में 

पीली फ्रॉक पहने 

छुप जाऊं 

और दादा से कहूं - 

ढूंढो मुझे।


पके जामुन से रंग लेकर 

जब बादल पहाड़ों से 

सहिया जोड़ने चलें 

तो उन्हें गले मिलते देखूं। 


पर कैसे करूं 

मैं पूरी अपनी चाहना ? 

कविताओं वाली नदी

सूखने लगी है 

गीतों के पहाड़ 

उजाड़ हैं 

जंटगी के खेतों में 

हिंडालको की माइंस खुदी हैं। 


सूख गए हैं पोखरे 

बादल पहाड़ों से 

आंख चुरा रहे हैं 

और जंगल से गुजरती हवा 

गुनगुनाना गुदगुदाना भूल गई है। 


बस फुसफुसाती हुई 

न जाने क्या कहती है 

कि मन अंदेशे से भरे 

दह में डूबता उतरता है।

और कविताओं की नदियों में 

डूबने की इच्छा 

बंदूक की बटों 

और बूटों के नीचे 

कराहती रहती है 

दिन-रात।


 कविता की व्याख्या :

झारखंड की आदिवासी कवयित्री वंदना टेटे ने आदिवासी कविता में अपनी पहचान कायम रखी है। वे हिंदी एवं खड़िया भाषा में अपना काव्य लेखन करती है। उन्होंने 'कोनजोगा'  संग्रह के माध्यम से झारखंड के प्राकृतिक सौदर्यं का चित्रण करने का प्रयास किया है। वे 'कविताओं वाली नदी' में अपनी प्राकृतिक संवेदनशीलता को दर्शाती है। वह इसमें  'बचपना' प्रवृति को भी व्यक्त करती है। वे कहती है कि वह कविताओं वाली नदी में अब भी और कभी भी गोते लगाना चाहती है। यानि की प्राकृतिक सानिध्य में या जिस भी परिवेश में नदी-नाले बहते रहते हैं। उस नदी-नालों में कवयित्री गोते लगाकर आनंद लेना चाहती है।  

प्रकृति के गोद में जितने भी बड़े-बड़े पहाड़ पर्वत हैं उन सभी पर गीतों को गाकर मन प्रसन्न करना चाहती है। और प्रकृति के इर्दगिर्द सभी खेत-खलिहानों में वह पिला रंग का फ्रोक पहनकर अपने दादा से चुपके से कहना चाहती है कि वह अब मुझे ढूंडो! हम देखते हैं कि बारिश के दिन शुरू होने से पहले जामुन के पकने का मौसम रहता है। इस मौसम को भी कवि ने नहीं छोड़ा। वे कहती है जामुन पकने के पहले जब जामुन रंग बदलते हैं, तो बादल भी अपना रंग काला करते हैं। यानि वह भी अपना रंग बदलते हैं। 

'जामुन और बादल'  के रंग को वह 'कविताओं वाली नदी' के परिवेश में खोजती है। लेकिन आज मनुष्य ने जैसे-जैसे प्राकृतिक संपदा को तहस-नहस करना शुरू कर दिया है। तब से 'कविताओं वाली नदी' भी सूखने लगी है। उसने बहन कम कर दिया है। यानि कि पृथ्वी से जब पेड़-पौधे कम होते गए, तब-तब प्राकृतिक परिवर्तन देखने को मिले। उसमें 'कविताओं वाली नदी' भी सूखी हुई दिखाई देती है

बड़े-बड़े पहाड़ों ने बड़ी-बड़ी सडकों की जगह ले ली और  उसमें कविताओं वाली नदी के सानिध्य में जो भी गीतों का गायन होता था वह भी सूखा पड़ा मिलने लगा है। और यह सब देखकर बादल भी अपने आँख छुपाते हुए मिल रहे हैं। जो हवा पेड़ -पौधों के कारण गीतों को गुनगुनाने लगती थी। वहीं हवा आज हमें भी शांत हुई दिखती है। जब से कविताओं वाली नदी पर आक्रमण होते गए है। तब से न जाने क्या क्या परिवर्तन हुए जिसके चलते प्राकृतिक संपदा खत्म होती गई है। अब इस कविताओं वाली नदी के नीचे कवि को 'बारूद और बन्दूक' चलने की आवाज़ नज़र आ रही है। 

इस प्रकार से झारखंड की आदिवासी कवयित्री वंदना टेटे अपनी कविता 'कविताओं वाली नदी' प्रकृति की संवेदनशीलता को अभिव्यक्त करती है। 

संदर्भ:

वंदना टेटे-कोनजोगा (काव्य संग्रह) पृ.15-16 

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