डॉ. भगवान गव्हाड़े की कविता 'आदिवासी संस्कृति' में अस्मिता
-Dr. Dilip Girhe
'आदिवासी संस्कृति'
हमारा घर जंगल-जमीन
हमारा संसार खेत-खलिहान
हमारी सन्तान पशु-पक्षी धन
हमारा आँगन हरे-भरे धान
हमारा मान-सम्मान बच्चों की मुसकान
हमारा गौरव मेहमानों का आगमन
हमारी प्रतिष्ठा बुजुर्गों का मान
हमारा धर्म प्रकृति सुरक्षा के लिए बलिदान
हमारे माता-पिता धरती और आसमान
हमारे देवता सूर्य चन्द्र ग्रहमान
हमारा विज्ञान ऋतुचक्र गतिमान
हमारी समता स्त्री-पुरुष एक समान
हमारी संस्कृति मातृसत्ता प्रधान
हमारी भाषा मीठी-सी जुबान
हमारा संगीत पंछियों का गान
हमारा साहित्य धरती माँ का गुणगान
'आदिवासी संस्कृति' कविता अस्मिता का प्रतीक है-
आदिवासी संस्कृति में उनकी अस्मिता ही विशेष प्रतीक है। भारतीय आदिवासी समुदाय हजारों वर्षों से प्रकृति के परिवेश में जीवनयापन करता आया है। वह जंगल के हर एक पेड़, पौधे, वनस्पति से परिचित है। वह जंगलों के हर एक पेड़ पौधें से अपने घर का निर्माण करता है। इसी वजह से वह जंगलों को अपना निवासस्थान या घर मानता है। वह अपने घर के आसपास ही अपनी उपजीविका चलाता है। आदिवासी समुदाय की खेती की विशेषता 'झूम' रही है। झूम का अर्थ होता है स्थलांतरीत खेती। यानि आदिवासी रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी सुविधाओं को पाने के लिए वह दर-दर भटकता है। जब वह पहली जगह पर खेती करता था। वह खेती कुछ समय बाद छोड़ देता है।
प्रकृति के गोद में जितने भी जीव-जंतु, कीड़े, पशु-पक्षी, प्राणी, जानवर रहते हैं। वे सभी के सभी आदिवासियों के सखा बन जाते हैं। इसीलिए वह उनके साथ हिंस्र बर्ताव नहीं करते हैं। आदिवासियों की खेती जंगलों पर निर्भर होती है। यही वजह रही है रही है कि जब आदिवासी अपने आंगन में आता है तो उसे सबसे पहले हरे-भरे धान ही मिलते हैं। वह यह सब नजारा देखकर बहुत खुश हो जाता हैं। आदिवासियों ने अपना मान-सम्मान बच्चों की मुस्कान को बताया है। संसार के सभी छोटे-छोटे बच्चे खुश रहने में ही उनका आत्मविश्वास या आत्मसम्मान बढ़ जाता है। मेहमानों का मान-सम्मान करना उनकी गौरवशाली परंपरा रही है। इसमें भी वह बड़े बुजुर्गों की प्रतिष्ठा का कद्र करते हैं।
वे सबसे पहले प्रकृति की सुरक्षा करना चाहते हैं। चाहे उनकी अपनी जान क्यो न देनी पड़ेगी। जल- जंगल और ज़मींन के लिए उनकी विशेष लड़ाई रही है। वे धरती और आसमान को अपने माता-पिता समान मानते हैं। सूर्य चन्द्र के ग्रहमान को वे देवता की उपाधि देते हैं। प्रकृति का जो ऋतुचक्र है वहीं उनका विज्ञान कहलाता है। भारतीय समाज व्यवस्था में पुरुषों को अहम् दर्जा दिया है। किंतु आदिवासी संस्कृति स्त्री-पुरुष समानता को बढ़ावा देती हैं। इसमें महिला को प्रथम स्थान दिया गया है। मातृसत्तात्मक यह उनकी खास विशेषता रही है। उनकी भाषा और संगीत की भी महत्वपूर्ण विशेषता रही है। पंछियों के जुबान से जो ध्वनि निकलता है, वह उनका संगीत है। वे उसे बहुत अच्छी तरह से भी जानते-पहचानते हैं। आज उनका संपूर्ण साहित्य प्राकृतिक सौंदर्य का गुणगान गाता हुआ दिखाई दे रहा है। जिसे हम आदिवासी साहित्य में पढ़ रहे हैं।
इस प्रकार से डॉ भगवान गव्हाड़े 'आदिवासी संस्कृति' कविता में आदिवासियत के संदर्भ को प्रत्येक पक्तियों के माध्यम से बताना चाहते हैं।
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