बुधवार, 18 सितंबर 2024

अनुज लुगुन की कविता 'अघोषित उलगुलान' का स्वर || आदिवासी कविता || अघोषित उलगुलान काव्य संग्रह || Aadiwasi Kavita ||

 


अनुज लुगुन की कविता 'अघोषित उलगुलान' का स्वर

-Dr.Dilip Girhe  


'अघोषित उलगुलान' 


अल सुबह दान्डू का काफिला 

करता है शहर की ओर और 

साँझ ढले वापस आता है 

परिन्दों के झुण्ड-सा 

अजनबीयत लिए शुरू होता है दिन 

और कटती है रात 

अधूरे सनसनीखेज किस्सों के साथ 

कंक्रीट से दबी पगडंडी की तरह 

दबी रह जाती है 

जीवन की पदचाप

विल्कुल मौन


वे जो शिकार खेला करते थे निश्चित 

जहर-बुझे तीर से 

या खेलते थे 

रक्त-रंजित होली 

अपने स्वत्व की आँच से 

खेलते हैं शहर के 

कंक्रीट जंगल में 

जीवन बचाने का खेल


शिकारी शिकार बने फिर रहे हैं 

शहर में

अघोषित उलगुलान में 

लड़ रहे हैं जंगल


लड़ रहे हैं ये 

नक्शे में घटते अपने घनत्व के खिलाफ 

जनगणना में घटती संख्या के खिलाफ 

गुफाओं की तरह टूटती 

अपनी ही जिजीविषा के खिलाफ


इनमें भी, वही आक्रोशित हैं 

जो या तो अभावग्रस्त हैं 

या तनावग्रस्त 

बाकी तटस्थ हैं 

या लूट में शामिल हैं 

मंची  जी की तरह 

जो आदिवासियत का राग भूल गये 

रेमंड का सूट पहनने के बाद


कोई नहीं बोलता इनके हालात् पर 

कोई नहीं बोलता जंगलों के कटने पर 

पहाड़ों के टूटने पर 

नदियों के सूखने पर 

ट्रेन की पटरी पर पड़ी 

तुरिया की लावारिस लाश पर 

कोई कुछ नहीं बोलता


बोलते हैं बोलने वाले 

केवल सियासत की गलियों में 

आरक्षण के नाम पर 

बोलते हैं लोग केवल 

उनके धर्मातरण पर 

चिन्ता है उन्हें

उनके 'हिन्दू' या 'ईसाई' हो जाने की 

यह चिन्ता नहीं कि- 

रोज़ कंक्रीट के ओखल में पिसते हैं उनके तलवे 

और लोहे की ढेकी में कुटती है उनकी आत्मा?


बोलते हैं लोग केवल बोलने के लिए

लड़ रहे हैं आदिवासी 

अघोषित उलगुलान में 

कट रहे हैं वृक्ष 

माफिया की कुल्हाड़ी से 

और बढ़ रहे हैं कंक्रीट के जंगल


दान्डू जाये, तो कहाँ जाये ? 

कटते जंगल में 

या-

बढ़ते जंगल में...?


कविता का स्वर:

आदिवासी काव्य में अघोषित उलगुलान को साबित करने वाले आदिवासी युवा कवि अनुज लगुन को अभी-अभी उनके 'अघोषित उलगुलान' काव्य संग्रह को "मलखान सिंह सिसौदिया" कविता पुरस्कार मिला है। इस साहित्यिक पुरस्कार उपलब्धि के लिए उनको हार्दिक बधाई। अधिकांश आदिवासी साहित्य जानने वालों को उलगुलान का अर्थ पता है। फिर भी हम फिर से जानने की कोशिश करेंगे। उलगुलान यह मुंडारी भाषा का शब्द है। जिसका अर्थ होता है 'विद्रोह', 'आंदोलन', 'प्रतिरोध' आदि। जिस उलगुलान को बिरसा मुंडा ने तीर-धनुष से आगे बढ़ाया था। वही उलगुलान कवि अनुज लुगुन अपनी कलम के माध्यम से आगे बढ़ना चाहते हैं। उन्होंने कलम को तीर बनाया है। उसी तीर के माध्यम से वे प्रतिरोध करते हैं। अघोषित का मतलब ही है कि जिसकी घोषणा न करते हुए किया गया विद्रोह। उसे हम 'अघोषित उलगुलान' कह सकते हैं। कवि का यह उलगुलान प्राकृतिक पेड़, पौधे, जल, जंगल और जमीन बचाने के लिए की गई एक महत्वपूर्ण पहल है।

कवि 'अघोषित उलगुलान' कविता के माध्यम से हमें कहना चाहते हैं कि आज सुबह होते ही बहुत से परिदों के झुण्ड का कबीला आजकल शहर की ओर हमें जाता हुआ दिखाई दे रहा है। लेकिन उनका जीवन जिस कंक्रीट से रस्ता बना हुआ है उसके नीचे दबा हुआ मिलता है। जिसके चलते सभी का जीवन मौन हो गया है। जो लोग अपनी पहचान या अस्मिता की लड़ाई लड़ा करते थे वे सभी के सभी कंक्रीट के रस्ते के नीचे दब गए हैं। जो प्रकृति के गोद में अपना खुशहाल जीवन जीते थे, वह भी हमें आज शहर के गली-गली में भटकते मिल रहे हैं। और इनकी लड़ाई जंगल लड़ रहे हैं। इन कट रहे जंगलों की लूट पर आज कोई भी नहीं बोलता है।  

जो जंगल आज भरमार कट रहे हैं। वहीं जंगल आज अपने हक़ की लड़ाई लड़ रहे हैं। वे बेजुबान भले ही है लेकिन वह "जिओ और जीने दो" का संदेश दे रहे हैं। जिन जंगलों को नक़्शे से हटाया गया और जंगलों का घनत्व कम मिला। वही जंगल अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ रहे हैं। उनको अपनी ही जिजीविषा के खिलाफ विद्रोह करना पड़ रहा है। जो लोग आज रेमंड का सूट पहनकर घूम रहे हैं और आदिवासियत का राग भूल गए हैं। यह लोग भी इसमें शामिल हैं

कोई भी इन कटते वृक्षों के हालातों पर बातचीत नहीं करता है। सब अपनी-अपनी जिन्दगी में खुश है। बावजूद इसके नदियाँ सूखने, पहाड़ों के टूटने, ट्रेन की पटरी पर पड़ी लाश जैसे मुद्दों पर आज कोई भी बोलने को तैयार नहीं है। और जो बोलते हैं वह सिर्फ अपने को खुर्ची मिलने के लिए और गंभीर विषय को छोड़कर बोलते हैं धर्मांतरण व आरक्षण पर। सिर्फ उनको आदिवासी हिन्दू या इसाई हो जाने की चिंता है। किंतु वे अपनी आत्मा कंक्रीट के रस्ते के नीचे दबा चुके हैं। उस पर कोई नहीं बोल रहा है। केवल बोलने के लिए बोलते हैं। इस अघोषित उलगुलान में आदिवासी लड़ रहे हैं। जल-जंगल और जमीन को बचाने के लिए। फिर माफियाओं की कुल्हाड़ी से बड़े-बड़े जंगल कट रहे हैं। उसकी जगह पर लम्बी-लम्बी कतार वाली सड़के बन गई है। इस सब का विरोध कवि अघोषित उलगुलान से करना चाहते हैं। जिससे प्राकृतिक संपदा बच सकें।

अतः अनुज लुगुन अघोषित विद्रोह को अपनी कलम के द्वारा व्यक्त करना चाहते हैं। 

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