शनिवार, 14 सितंबर 2024

अनुज लुगुन के 'शहर के दोस्त के नाम पत्र' कविता में भूमंडलीकरण की शक्लें !! आदिवासी कविता !! Aadiwasi Kavita !!

 

अनुज लुगुन के 'शहर के दोस्त के नाम पत्र' कविता में भूमंडलीकरण की शक्लें  

-Dr.Dilip Girhe 


'शहर के दोस्त के नाम पत्र'

हमारे जंगल में लोहे के फूल खिले हैं 

बॉक्साइट के गुलदस्ते सजे हैं 

अभ्रक और कोयला तो 

थोक और खुदरा दोनों भावों से 

मंडियों में रोज़ सजाये जाते हैं 

यहाँ बड़े-बड़े बाँध भी 

फूल की तरह खिलते हैं 

इन्हें बेचने के लिए 

सैनिकों के स्कूल खुले हैं


शहर के मेरे दोस्त 

ये बेमौसम के फूल हैं 

इनसे मेरी प्रियतमा नहीं बना सकती 

अपने जूड़े के लिए गजरे 

मेरी माँ नहीं बना सकती 

मेरे लिए सुकटी' या दाल 

हमारे यहाँ इससे कोई त्योहार नहीं मनाया जाता


यहाँ खुले स्कूल 

बारह खड़ी की जगह 

बारहों तरीकों के गुरिल्ला युद्ध सिखाते हैं


बाजार भी बहुत बड़ा हो गया है 

मगर कोई अपना सगा दिखाई नहीं देता

यहाँ से सबका रुख शहर की ओर कर दिया गया है 

कल एक पहाड़ को ट्रक पर जाते हुए देखा 

उससे पहले नदी गयी 

अब खबर फैल रही है कि 

मेरा गाँव भी यहाँ से जाने वाला है 


शहर में मेरे लोग तुमसे मिलें 

तो उनका ख्याल जरूर रखना 

यहाँ से जाते हुए उनकी आँखों में 

मैंने नमी देखी थी और हाँ ! 

उन्हें शहर का रीति-रिवाज़ भी तो नहीं आता


मेरे दोस्त 

उनसे यहीं मिलने की शपथ लेते हुए 

अब मैं तुमसे विदा लेता हूँ।


कविता की संवेदनशीलता:

मुंडारी भाषा सशक्त हस्ताक्षर माने जाने वाले आदिवासी युवा कवि अनुज लुगुन है। उन्होंने आदिवासी काव्य जगत में निर्मला पुतुल के जैसी चौकाने वाली कविताएँ लिखी हैं। और आदिवासी काव्य जगत में अपनी पहचान बनाई है।उनकी कविताओं में हमें आज भी आदिवासियत की विशेषता मिलती है। उन्होंने अपनी कविता 'शहर के दोस्त के नाम पत्र' कविता में सन् १९९० के बाद जो भी जलद गति से परिवर्तन हुए हैं। उन सभी परिवर्तनों का पर्दाफाश किया है। यानि की भूमंडलीकरण की असली शक्लों को उन्होंने इस कविता में संक्षेप में अभिव्यक्त किया है। भारतीय समाज पर भूमंडलीकरण के परिणाम के पक्ष देखे गए हैं। सकरात्मक व नकारात्मक। इन दोनों परिणामों का आदिवासी जीवन पर प्रभाव पड़ा है। 

वे 'शहर के दोस्त के नाम पत्र' कविता के माध्यम से झारखंड के आदिवासी क्षेत्रों की वास्तविकता को बताते हैं वे कहना चाहते हैं कि झारखंड जैसे आदिवासी बहुल राज्य में पहाड़ी-जंगली इलाकों में बड़े-बड़े लोहे के फूल खिलते हुए मिलते हैं। यहाँ पर अभ्रक, कोयला और बोक्साइड की बड़ी बड़ी खदानें मिलती है। जैसे कि एक गुलदस्ते में फूल सजे हुए मिलते हैं और इसकी कीमत थोक व खुदरा दोनों भावों से चलती है। साथ ही विकास की निति के नाम पर यहाँ के आदिवासियों को विस्थापित करते बड़े-बड़े बाँध बनाये हुए मिलते हैं। इन सबकों बेचने के लिए यहाँ पर सैनिकों के स्कूल भी खुले हुए हैं। 

कवि आगे कहते हैं कि आपको यह जो बेमौसम में जो खिले हुए फूल दिख रहे हैं। वह फूल किसी भी काम के नहीं है। इन परिस्थितियों में कोई भी ख़ुशी का पल या त्यौहार नहीं मना सकते हैं। क्योंकि यह बेमौसम के फूल हमारे कुछ भी काम के नहीं है। जिसके कारण हमारा जीवन अस्त व्यस्त हो गया हो। इस मौसम में खुले हुए स्कूल बारहखड़ी की जगह गुरिल्ला युद्ध सिखाते हैं। इसीलिए हमें यह सब नहीं चाहिए

इन सभी परिस्थितियों में बाजार ने भी अपना आकर बदलकर वह विशालकाय हो गया है। किन्तु इस बाजार में अपने से प्रेम करने वाला कोई सगा नहीं मिलेगा। इसीलिए यह बाजार भी कुछ काम का नहीं है। इस आधुनिकता ने बड़े से बड़े पहाड़ को खोदकर उसे ट्रक में डालकर शहरों की ओर लाया जा रहा है। नदियों को भी नंगा किया जा रहा है। 

कवि व्यग्य शैली कहते हैं कि हे शहर के दोस्त तुझे गाँव के दोस्त अगर मिले तो उसका ख्याल रहना। क्योंकि यहाँ से जाते हुए मैंने उनकी आँखों में नमी देखी है और साथ ही वे अपनी अस्मिता को भी भूलते गए हैं। अतः कवि कहते हैं कि मेरे दोस्त उनसे यहीं मिलने की शपथ लेते हुए अब मैं तुमसे विदा लेता हूँ।

इस प्रकार से कवि अनुज लुगुन ने 'शहर के दोस्त के नाम पत्र' काव्य के जरिये आधुनिकतावाद के विविध पक्षों को देखा-परखा है। 


संदर्भ: 

रमणिका गुप्ता (सं).कलम को तीर होने दो. पृ 77-78 


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