डॉ.भगवान गव्हाड़े की कविता में माँ की संवेदनशीलता का चित्रण
-Dr.Dilip Girhe
"माँ"
माँ
धूपकाले में...
चुन लाती है जंगल से महुए के फूल
चारोली, गोंद, विव्या फूल, कंद मूल, तेंदू फल,
तोड़ लाती तेंदू पत्तों का ढेर
झोंपड़ी में उसका लगाकर अम्बार जोड़ती रहती देर सवेर
मिल जाता अगर थोड़ा-सा भी समय
चुनती रहती ज्वार-बाजरे, गेहूँ-चावल से कंकड
बनाकर रखती सेवई-पापड़-अचार
कूटती रहती लाल मिर्च और मसाले
माँ
बरसात में...
बो देती है आँगन में
करेले-कद्दू-काशीफल-तुरई के बीज
लता-वेलियों की बन जाती है सखी-वैसाखी
देती है लकड़ी के मंडप का मजबूत आधार
भीग कर घर आयी भेड़-बकरियों को
फटे पूराने कपड़े से सुखाती है उनका बदन
गाय का दूध दुहते हुए रखती है बछड़े का खयाल
माँ
सर्दियों के दिनों में...
बनाती है सूखे मेवे और उड़द के लड्डू,
सिलाती है हमें ठंड से बचाने के लिए गुदड़ी
जलाती है तुलसी वृन्दावन का दिया
और जलाती है हमारे लिए उपलियों का अलाव
माँ
तीनों ऋतुओं में...
रखती है खयाल घर-परिवार और मवेशियों-खेत-खलिहान का
तनखा-पेंशन की अपेक्षा किये बिना
करती रहती अविरत सेवा
मान सम्मान, पुरस्कार का सपना लेकर
नहीं जीती जिन्दगी वह...
कविता की संवेदना:
संसार में माँ की ममता की तुलना किसी के साथ भी नहीं की जा सकती है। साहित्य जगत में अनेक कवियों ने माँ की ममता को कलमबद्ध किया है। आदिवासी कविता ने भी ऐसे संवेदनशील पक्षों का काफ़ी गहराई से अध्ययन किया हुआ मिलता है। ऐसा ही अध्ययन महाराष्ट्र के आंध समुदाय के कवि डॉ. भगवान गव्हाड़े ने अपनी 'माँ' कविता में अभिव्यक्त किया है। उन्होंने अपनी माँ की पारिवारिक जीवंतता को अपने कविता में व्यक्त किया है। यह अभिव्यक्ति भले ही उन्होंने अपनी माँ के संदर्भ में लिखीं हैं। किंतु इस कविता की प्रासंगिकता हर एक कवि के माँ के साथ जुड़ी हुई है। इसीलिए आदिवासी कविता की प्रासंगिकता का महत्त्व आज ज्यादा दिखाई देता है।
वे माँ कविता का संदर्भ देकर कहना चाहते हैं कि मेरे माँ का पारिवारिक जीवन काफ़ी सघर्षमय रहा है। वह धूपकाले के दिनों में जगंलों से महुआ के फूल इक्कठा करके लाती है। साथ ही जंगलों में पाए जाने वाले चारोली, गोंद, बिब्बा फूल, कंदमूल, तेंदूफलों को तोड़कर लाती है। देर रातों तक काम करती रही है। थोड़ा भी समय मिला तो वह ज्वार, बाजरे, गेहूं चावल से कंकड़ निकालती। इसके साथ ही घर में पापड़ आचार, मिर्च पावडर हल्दी पावडर बनाती।
वह बरसात के दोनों में भी करेले, कद्दू, काशीफल, तुरई जैसे अनेक बीजों को बोने का काम करती है और उनकी सखी बन जाती है। जब भारी मात्रा में बारिश होती है, तो उसे अपने घर में बंधे हुए भेड़-बकरियों की भी चिंता लगी रहती है कि क्या वह भीगे तो नहीं! जब यह चित्र उसे वास्तविक दीखता है तो उनको वह अपने फटे हुए साड़ी से भेड़-बकरियों को सुखाती। उनके बदन को पोछती। साथ ही छोटे-छोटे गाय के बछड़ों का भी वह ख्याल रखती।
माँ सर्दियों के दिनों में भी चुप नहीं बैठती। वह उन दिनों में सूखे मेवे के और उड़द के लड्डू बनाती रहती। और ठण्ड से बचने के लिए गुदड़ी भी सिलाती है। साथ ही वह ध्यान से तुलसी का दिया भी जलती। और अपने घर के सभी सदस्यों का ख्याल रखती है। खेत-खलिहानों में उगे धान को भी संभालती है। उसे किसी भी तनख्वाह और पेंशन की चिंता नहीं होती। दिन-रात करती रही है अविरत सभी की सेवा।
इस प्रकार से डॉ. भगवान गव्हाड़े ने अपनी कविता में माँ की संवेदना को काफ़ी गहराई से चित्रित किया है।
संदर्भ:
डॉ. भगवान गव्हाड़े-आदिवासी मोर्चा (काव्य संग्रह) पृ.21-22
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