'इंसान को इंसानियत का मार्ग दिखाने वाली' आदिवासी कविता
-Dr.Dilip Girhe
भारत में समतामूलक समाज और मानवीयता को स्थापित करने के लिए स्वतंत्रता, समता, बंधुता और न्याय जैसे मूल्यों को जानना और समझना होगा, तभी समतामूलक समाज की अवधारणा विकसित हो सकती है। भारत के आदिवासियों की स्थिति देखकर हम यह कह सकते हैं कि उनको आज भी न्याय नहीं मिल पाया है। जब तक बाहरी घुसपैठ से आदिवासी आज़ाद नहीं हो पाएंगे, तब तक उनका विकास नहीं हो पायेगा। आज आदिवासियों के सामने ‘बाहरी घुसपैठ के बीच अपनी संस्कृति बचाना’ जैसी कई चुनौतियाँ हैं। भारतीय संविधान में समानता का अधिकार अनुच्छेद-14-18 में दिया गया है। अनुच्छेद-15 में कहा गया है कि किसी भी समाज के साथ धर्म, वंश, जाति, लिंग और जन्मस्थान आदि के नाम पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। लेकिन सच्चाई यह है कि सवर्ण समाज द्वारा आदिवासियों को जंगली, बर्बर, असभ्य, वनवासी, दास, दस्यु, दानव ऐसे कई शब्दों से पुकारा जा रहा है। इन सभी आयामों का विरोध आदिवासी कविता करके एक समतामूलक समाज बनाने में अपनी भागीदारी निभाती है।
आदित्य कुमार मांडी ‘समानता’ कविता में भारतीय लोकतंत्र की स्थिति को व्यक्त करते हैं। वे कहते हैं कि जिनके कठोर परिश्रम से दुनिया आगे बढ़ रही है, वह अधर पर क्यों? ‘शेर’ को प्रतीक बनाकर वे समझाते हैं कि हमारे समाज में ऐसे कई शेर हैं, जो शीर्ष स्थान पर रहकर शेर की तरह हुकूमत चलाना चाहते हैं। परंतु हम जानते हैं शेर की क्या भूमिका है? बस केवल राज करना और शिकार देखते ही झपट पड़ना। भारतीय समाज में हमें इस तरह के शेर नहीं चाहिए, जो खुद का स्वार्थ देखते हैं। हमें तो ऐसे शेरे चाहिए, जो करते हैं ‘लोकतंत्र व सत्यमेव जयते की हिफाजत’। जो शेर लोकतंत्र व सत्यमेव जयते की हिफाजत करेगा, वहीं समाज में मानवता के मूल्यों को स्थापित कर पायेगा। आदित्य कुमार मांडी की ‘समानता’ कविता के स्वर इस प्रकार हैं-
“शेर को शीर्ष पर जगह देना
कितना सही है?
संसार में शेर की भूमिका क्या है?
बस राज करता है
कोई काम नहीं
और जो संसार के लिए
काम करता है
उसी को शिकार बनाता है।”[1]
भारतीय समाज व्यवस्था वर्ण और वर्ग आधारित समाज व्यवस्था है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार वर्ण समाज में हैं। भारत में आर्यों के आने के बाद यह समाज व्यवस्था स्थापित हुई। लेकिन आदिवासी कवि ओली मिंज ‘शायद मैं आदमी हूँ’ कविता में वर्ण व्यवस्था बनने के पहले की बात करते हैं। जब मानव की उत्पत्ति हुई थी, तब न कोई जाति थी, न कोई धर्म था, केवल मनुष्य ही एकमात्र प्राणी इस भूतल पर था। इस बात को कवि ओली मिंज की कविता ‘शायद मैं आदमी हूँ’ इस प्रकार समझाती है-
“शायद मैं आदमी हूँ
लेकिन जन्मकुंडली से
ब्राह्मण हूँ क्षत्रिय हूँ
वैश्य हूँ शूद्र हूँ
इनमें से जो सबसे पुराना
वहीं मेरा दावा
शायद मैं आदमी हूँ।”[2]
वर्तमान भारतीय समाज टुकड़ों-टुकड़ों में क्यों बंटा हुआ दिखाई दे रहा है? समाज में परिवर्तन तो हो रहा है, लेकिन समाज के साथ आदमी का बदलना भी ज़रूरी है। मनुष्य और समाज के बीच जब-जब बहस होगी तब-तब मनुष्य ही बदल जाएगा। एक ऐसी बहस, जिसमें भारतीय समाज का हर तबक़ा उस बहस में शामिल हो, सबको बोलने, पढ़ने और लिखने का अधिकार मिले, तभी तो समाज में समानता आएगी। ‘समाज’ कविता में कवयित्री निर्मला पुतुल की अभिव्यक्ति इस तरह से हैं-
“जरूरी है आदमी और
समाज के बीच बहस होना
एक ऐसी बहस जिसमें समाज का हर
तबका शामिल हो सके
दलित हो या पिछड़ा
सबको संवाद का अवसर मिलना चाहिए
एक ऐसी बहस की जरूरत है समाज से।”[3]
‘भारतवासी’ कविता में डॉ.भगवान गव्हाड़े कहते हैं कि -
“हमें लौटा दो हमारे मनुष्य
होने की पहचान
न हम गिरिजन, ना हम हरिजन
न ही वनवासी, ना हम जंगली
ना असभ्य ना नररक्षक
हम हैं आदिवासी, धरती माँ के रक्षक
नहीं हम हिंदू, नहीं हम मुस्लिम
नहीं ईसाई, ना ही आतंकी
ना माओवादी, ना ही नक्सलवादी
हम हैं संवैधानिक-कानूनन भारतवासी।”[4]
आज माओवाद, नक्सलवाद और आतंकवाद मानवतावाद को ख़त्म करता जा रहा है। घटते हुए जंगल भी यही संकेत दे रहे हैं कि मानवता के बीज नष्ट हो रहे हैं। मनुष्य लालच की खातिर किस हद तक जा सकता है इस बात को कवि आदित्य कुमार मांडी ‘मानवता’ कविता में स्पष्ट करते हैं कि-
“लालच
जिसमें नहीं गढ़ी जा सकती मानवता
नहीं फैलायी जा सकती शांति
पाना खोना भोगना इन सब के बीच
मोल नहीं है इंसान होने का
मानवतावाद का संरक्षण और प्रसार ही
मनुष्य होने का मोल है।”[5]
दूसरी ओर कवि ओली मिंज ‘धर्म का मर्म’ कविता का आशय बताते हैं कि यहाँ पर हर एक समाज के धर्म के लोगों को झंडा गाड़ने के लिए बाँस, सगुआ और साग का डंडा चाहिए। साथ ही साथ उस हर एक झंडों के लिए कद, नभ और गगन बेदी नारों के साथ जय-जयकार करने के लिए विशिष्ट ‘घोष वाक्य’ भी चाहिए। लेकिन इस झंडे और डंडे की राजनीति में प्रकृति के विविध संसाधन नष्ट हो रहे हैं। कवि के शब्द इस प्रकार बयान देते हैं कि-
“यहाँ हर धर्म को
झंडा चाहिए
झंडे को डंडा चाहिए
बांस का
सखुआ-सागवान का
झंडे को यहाँ
कद चाहिए
नभ चाहिए
गगनभेदी नारों में
जयकारों में
झंडे को
पार्श्व में नहीं
उर्ध्व में गति चाहिए
शायद धर्म का मर्म यही
प्रकृति का अंत चाहिए।”[6]
आदिवासी कविता मनुष्य-मनुष्य में इंसानियत के रिश्ते की ख़ोज करती हुई दिखाई देती है। यह रिश्ता ऐसा है जिसके जरिए प्यार बढ़ता है। इंसानियत से प्यार करने वाले लोगों में न ही कोई अहंकार होता है, न कोई लालच होता है और न ही कोई भेदभाव होता है। वे हमेशा ही हर आदमी की भलाई ही चाहते हैं। इसीलिए इंसानियत का रिश्ता मानवता को स्थापित करने में बहुत ही बड़ी भूमिका निभाता है। आदित्य कुमार मांडी ‘रिश्ता’ कविता में इंसानियत की बात करते हैं-
“इंसानियत का रिश्ता सबसे महत्वपूर्ण है
इंसानियत से प्यार करने वालों को
प्यार ही नजदीक लाता है
और ज़माने को शुभ संदेश देता है।”[7]
मनुष्य की पहचान उसके अंदर के विविध गुणों से होती है। मनुष्य में सकारात्मक और नकारात्मक दो प्रकार के गुण होते हैं। जो मनुष्य सकारात्मक सोच रखता है, वह मनुष्य कल्याण की बात करता है। कवि आदित्य कुमार मांडी अपनी कविता ‘इंसान ही इंसान को पहचानता है’ में मनुष्य की सकारात्मक और नकारात्मक सोच को समझाते हुए कहते हैं कि-
“इंसानियत पहले
अधिकार अधिकारी पदभार
यह सब अपने अपने लिए है
दुनिया में कौन किसको पूछता है?
सिर्फ इंसान इंसान को पहचानता है।”[8]
इस प्रकार आदिवासी कविताओं में समतामूलक समाज बनाने के लिए कवियों की कलम लगातार चल रही है। वे चाहते हैं कि कविताओं के माध्यम से समाज के हर व्यक्ति को मानवतावादी भावनाओं को विकसित करने का संदेश दें। जिससे समाज में रहने वाले अहंकारी प्रवृति के लोगों का खात्मा किया जाए।
[1] मांडी, आदित्य कुमार. (2015). पहाड़ पर हूल फूल. राँची, झारखंड : प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन. पृष्ठ संख्या. 26
[2] मिंज, ओली. (2011). सरई. डोरंडा, झारखंड : सारिका प्रेस एण्ड प्रोसेस. पृष्ठ संख्या. 2
[3] पुतुल, निर्मला. (2014). बेघर सपने. पंचकूला, हरियाणा : आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड. पृष्ठ संख्या. 19-20
[4] गव्हाड़े, डॉ. भगवान. (2015). आदिवासी मोर्चा. नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 88
[5] मांडी, आदित्य कुमार. (2015). पहाड़ पर हूल फूल. राँची, झारखंड : प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन. पृष्ठ संख्या. 25
[6] मिंज, ओली.(2011). सरई. डोरंडा, झारखंड : सारिका प्रेस एण्ड प्रोसेस. पृष्ठ संख्या. 11
[7] मांडी, आदित्य कुमार. (2015). जंगल महल की पुकार. राँची, झारखंड : प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन. पृष्ठ संख्या. 54
[8] मांडी, आदित्य कुमार. (2015). जंगल महल की पुकार. राँची, झारखंड : प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन. पृष्ठ संख्या. 85
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