सरितासिंह बड़ाईक के 'सावन' कविता में प्रकृति के विविध रूप
Dr.Dilip Girhe
"सावन"
घड़ी-घड़ी बदरा गरजत है
बरखा जम कर बरसत है
सावन के सिंगार का बीड़ा
खेत सज़ा है
चारों ओर
मांदर थाप पर
मन मेरा थिरकत है
घड़ी-घड़ी बदरा गरजत है
बरखा जम कर बरसत है
नदी-नाला पोखर तलैया
रोपा-खेत डमकत-झूमर
छोरे चले कुमनी घर कर
मछली मारे
खोंसे कांसी-फूल जुड़े में
छोरी महकत है
घड़ी-घड़ी बदरा गरजत है
बरखा जम कर बरसत है
सुनसान है घर खेत में मेला
सावन में चलता कीच-हवा खेला
इन्द्रदेव मुस्काते ऊपर से
कीचड़ में बच्चे फुदकत है।
घड़ी-घड़ी बदरा गरजत है
बरखा जम कर बरसत है
हवा के जोर पेड़ओं पौधे
झुक-झुक चूम रहे हैं धरती
उड़ता देख सजनी का आँचल
जेठ, जेठानी को धंसकत है
घड़ी-घड़ी बदरा गरजत है
बरखा जम कर बरसत है
मस्त-मगन बदरा हो
जन-जन बौराए
मन की ख़ुशी कैसे बतलाएं
घर-घर नव रूप बिजुरिया चमकत है
घड़ी-घड़ी बदरा गरजत है
बरखा जम कर बरसत है
प्रकृति-मानुस का देख मिलन
अकल हुई बेहाल
संतोष से जीना ही जीना है
बात बूझ कर
मोरा अंग-अंग फरकत है
घड़ी-घड़ी बदरा गरजत है
बरखा जम कर बरसत है
कविता की व्याख्या:
नागपुरी भाषा की कवयीत्री सरितासिंह बड़ाईक ने 'नन्हीं नहीं'आशा अपेक्षाओं को चित्रित करने के लिए 'नन्हे सपनों का सुख' काव्य संग्रह लिखा। इस काव्य संग्रह में प्रकृति के गोद में खिलती हुई अनेक कविताएँ मिलती हैं। इसी कड़ी में हम इस पोस्ट के माध्यम से उनकी 'सावन' कविता में आये विविध प्राकृतिक रूपों को विश्लेषित करेंगे।
सावन महिना आने के बाद एक गाँव में, एक परिवार में, एक क्षेत्र में किस प्रकार का माहौल रहता है। इसका सुंदर ऐसा चित्रण सरिता अपनी कविता सावन में कराती है। सावन महीने में प्रकृति का रंग, रूप और आकार सुनहरा सा होता है। घड़ी-घड़ी में बादल गरजकर जमकर बरसते हैं। चारों ओर खेत-खलिहान हरे-भरे हो जाते हैं।
नदी-नाले लबालब भरकर बहने लगते हैं। हवा के झोकों से पेड़-पौधे नाचने लगते हैं। इसी मौसम में मन की स्थिति कुछ अलग ही आनंद देकर जाती है। प्रकृति के विविध रूप, रंग और आकार भी हमें अलग अलग दिखाई देता है। गाँव-गाँव में छोटे-छोटे मेले भरे हुए दिखाई देते हैं। उस में में हर एक मनुष्य ख़ुशी से झूम उठता है।
हवा का भी एक अलग-सा रूप दिखाई देता है और जो बिजली गरजकर बारिश करवाते हैं। वे इंद्र देव के चहरे पर भी ख़ुशी दिखती है। जो कमल कीचड़ में अपना जीवन जी रहे हैं, वे भी अपने आप में ख़ुशी से झूम उठे हैं। हवा के झोकें से प्रकृति के पेड़-पौधे झूम रहे हैं। पशु-पक्षिओं की चिलकारी चारों ओर घूमती नजर आ रही है। हर एक परिवार की जेठ-जेठानी भी इस मौसम का आनंद ले रही हैं। वे अपने-आप में बहुत खुश है और प्रेमिकाओं ने भी कुशी जताई है, वे भी सज-धजकर इस मौसम में नाचने-गाने का आनंद ले रही है।
बिजुरिया भी मस्त मगन होकर चमकती दिखाई देती है। इस प्रकार से प्रकृति का हर एक मनुष्य अपने-आप के मिलन के लिए तैयार है। मोर भी अपना पिसारा फराक्ता हुआ दिखता है।
इस प्रकार से बहुत ही सुंदर तरीके से सरिता बड़ाईक 'सावन' कविता में प्राकृतिक विविध उपादानों का चित्रण करने में सक्षम रही है।
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