बुधवार, 2 अक्टूबर 2024

बेटी का पिता से संवाद उतनी दूर मत ब्याहना बाबा!! संताली भाषी कवयित्री निर्मला पुतुल !! नगाड़े की तरह बजते शब्द !! आदिवासी कविता !! Aadiwasi Kavita !! Tribal Poem !!

 


 बेटी का पिता से संवाद उतनी दूर मत ब्याहना बाबा!

-Dr. Dilip Girhe


उतनी दूर मत ब्याहना बाबा!

बाबा!

मुझे उतनी दूर मत ब्याहना
जहाँ मुझसे मिलने जाने ख़ातिर
घर की बकरियाँ बेचनी पड़े तुम्हें

मत ब्याहना उस देश में
जहाँ आदमी से ज़्यादा
ईश्वर बसते हों

जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ
वहाँ मत कर आना मेरा लगन

वहाँ तो कतई नहीं
जहाँ की सड़कों पर
मान से भी ज़्यादा तेज़ दौड़ती हों मोटर-गाडियाँ
ऊँचे-ऊँचे मकान
और दुकानें हों बड़ी-बड़ी

उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता
जिस घर में बड़ा-सा खुला आँगन न हो
मुर्गे की बाँग पर जहाँ होती ना हो सुबह
और शाम पिछवाडे़ से जहाँ
पहाडी़ पर डूबता सूरज ना दिखे ।

मत चुनना ऐसा वर
जो पोचाई आदिवासियों की देशी शराब 
जिसे चावल से बनाते हैं और हंडिया में
डूबा रहता हो अक्सर

काहिल निकम्मा हो
माहिर हो मेले से लड़कियाँ उड़ा ले जाने में
ऐसा वर मत चुनना मेरी ख़ातिर

कोई थारी लोटा तो नहीं
कि बाद में जब चाहूँगी बदल लूँगी
अच्छा-ख़राब होने पर

जो बात-बात में
बात करे लाठी-डंडे की
निकाले तीर-धनुष कुल्हाडी़
जब चाहे चला जाए बंगाल, आसाम, कश्मीर
ऐसा वर नहीं चाहिए मुझे
और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ
जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाया
फसलें नहीं उगाई जिन हाथों ने
जिन हाथों ने नहीं दिया कभी किसी का साथ
किसी का बोझ नहीं उठाया

और तो और
जो हाथ लिखना नहीं जानता हो "ह" से हाथ
उसके हाथ में मत देना कभी मेरा हाथ

ब्याहना तो वहाँ ब्याहना
जहाँ सुबह जाकर
शाम को लौट सको पैदल

मैं कभी दुःख में रोऊँ इस घाट
तो उस घाट नदी में स्नान करते तुम
सुनकर आ सको मेरा करुण विलाप.....

महुआ का लट और
खजूर का गुड़ बनाकर भेज सकूँ सन्देश
तुम्हारी ख़ातिर
उधर से आते-जाते किसी के हाथ
भेज सकूँ कद्दू-कोहडा, खेखसा चठैल, बड़ी बेर जैसे गोल एक सब्जी, बरबट्टी बीन्स जैसी एक सब्जी,
समय-समय पर गोगो के लिए भी

मेला हाट जाते-जाते
मिल सके कोई अपना जो
बता सके घर-गाँव का हाल-चाल
चितकबरी गैया के ब्याने की ख़बर
दे सके जो कोई उधर से गुजरते
ऐसी जगह में ब्याहना मुझे

उस देश ब्याहना
जहाँ ईश्वर कम आदमी ज़्यादा रहते हों
बकरी और शेर
एक घाट पर पानी पीते हों जहाँ
वहीं ब्याहना मुझे!

उसी के संग ब्याहना जो
कबूतर के जोड़ और पंडुक जोड़े में रहने के लिए प्रसिद्ध एक चिड़िया  पक्षी की तरह
रहे हरदम साथ
घर-बाहर खेतों में काम करने से लेकर
रात सुख-दुःख बाँटने तक

चुनना वर ऐसा
जो बजाता हों बाँसुरी सुरीली
और ढोल-मांदर बजाने में हो पारंगत

बसंत के दिनों में ला सके जो रोज़
मेरे जूड़े की ख़ातिर पलाश के फूल

जिससे खाया नहीं जाए
मेरे भूखे रहने पर
उसी से ब्याहना मुझे।

 कविता की व्याख्या:

भारतीय समाज में हम देखते हैं कि ब्याह के बाद लड़की अपने हजारों सपनों को लेकर ससुराल जाती है। किंतु उसके कुछ सपने आधे अधूरे रह जाते हैं। ससुराल जाने के बाद भी उसका अपने मायके रिश्तों के प्रति का प्यार कम नहीं होता है। वह प्रेम भावना उसके दिल से कभी भी ख़त्म नहीं होती। वह हमेशा उनसे कहती है 'तुमको ना भूल पाएंगे'। यह भावना आज हर नारी के मन में दिखाई देती है। ऐसे हजारों नारी के सपनों संजोए रखने के लिए झारखंडी कवयित्री निर्मला पुतुल 'उतनी दूर मत ब्याहना बाबा!' कविता में बात करती है। भले ही यह बात स्वयं उनके पारिवारिक जीवन से जुड़ी हो किंतु बहुतांश नारी की संवेदना उनके साथ मिल-जुल सकती है।
निर्मला पुतुल ने 'बेटी-पिता' जैसा वर्णन प्रस्तुत काव्य में किया है। यह संवाद हर देहाती जीवन जी रही भारतीय नारी अपने पिता से कर सकती है। वह बात करने का माध्यम अलग-अलग हो सकता है। निर्मला पुतुल ने अपना पारिवारिक संघर्ष को प्रस्तुत किया है। वे कहती है कि बाबा मेरा ब्याह करके उतनी दूर मत करना भेजना जहाँ पर आदमियों से अधिक ईश्वर निवास करते हैं। उस जगह मत भेजना जहाँ पर नदी, नालें, पेड़-पौधें और जंगल की कमी है। वे आगे कहती है कि वहाँ तो मुझे कतई नहीं भेजना जहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य नष्ट करके ऊँची-ऊँची मकानें, बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी की है। और रास्ते पर दौर रही है। धुंआ छोड़कर मोटर गाड़ियां। 
कविने प्रकृति के सानिध्य में अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत किया है। इसीलिए उसका प्रकृति के प्रत्येक हिस्से के साथ कुछ-न-कुछ रिश्ता जुड़ा हुआ है। उसका सम्पूर्ण बचपन अपने घर के आँगन में पला बढ़ा है। इसीलिए वह कहती है कि बाबा मुझे उस घर में ब्याहना जिस घर के सामने खेलने के लिए आँगन नहीं है। जिस घर में एक ही मुर्गे ने बांग नहीं दिया है। जिस घर से कभी भी सूरज डूबता हुआ नहीं दिखा है। बाबा! जिस घर में चौबीस घंन्टे वर शराब पीता हो ऐसे घर में मेरी शादी कतई न करना। 
स्त्री का पारिवारिक जीवन संघर्षमय रहा है। उसके शादी के बाद थारी लौटा की तरह कभी भी बदल नहीं सकते हैं। कवि कहती है कि बाबा! उस घर में मेरी शादी कभी मत करना जिस घर का वर छोटी छोटी बातों के लिए लाठी और डंडा लेता है और अपना मनचाहा बंगाल, असम, कश्मीर के चायबागानों में काम के लिए निकल पड़े। जिस वर ने कभी 'ह' से हाथ नहीं लिखा है और न ही कभी अपने हाथों से एक भी पेड़ नहीं लगाया है और ना कभी अपने खेतों से एक भी अनाज का दाना उगाया है।
कवयित्री अनपढ़ वर से भी शादी करने का नकार देती है। वे कहती है कि जिसको ह से हाथ लिखने का मालूम नहीं वह वर नहीं चाहिए। वह कहती है कि बाबा! मेरी शादी उस वर के साथ करना जो जान सकें मेरा सुख-दुःख, जो जान सकें मेरा आनंद। मुझे उस घर में भेजना जहाँ परिवार वाले मेरे लिए ला सकें गुड़ और खजूर। साथ ही ला सकें कद्दू, खेकसा, चथैल जैसी कई-कई फल सब्जियां। मेरी शादी उस गाँव में करना जहाँ मेला या बाजार आते-जाते समय पूछ सकें अपने परिवार जनों का हालचाल। बाबा! मेरी शादी संगी के साथ करना जो कबूतर के जोड़े जैसा जी सकें अपना जीवन। सदा आनंदित रहें और बजा सकें बाँसुरी, मांदर और ढ़ोल और बंसत के दिनों मेरे लिए ला सकें तोड़कर पलाश के फूल। और मेरे भूखे रहने पर जान सकें भूखे रहने की वजह।
इस प्रकार से निर्मला पुतुल ने 'बेटी-पिता' पारिवारिक संवाद बहुत ही सटीक तरीक़े से अपनी कविता में अभिव्यक्त किया है।
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