डॉ. भगवान गव्हाड़े ने अपनी कविता में व्यक्त की 'पहाड़ की दर्दभरी कहानी'
Dr. Dilip Girhe
'पहाड़'
रो रहा है पहाड़ आज आँसू भी सूख रहे हैं।
अपने तन-बदन को निर्वस्त्र होते देख रहा है।
पशु-पंछी को खिला-पिलाकर, बड़ा होते देखा था
जिसने निर्मम शिकारियों के हाथों, कत्ले आम होते देख रहा है। गुफाओं की गोद में कभी, थपकियों से सुलाया था जिनको।
ऐसे आदि मानव को, अस्थि-पंजर होते देख रहा है।
झरनें-नदियों से दिया, मानव को जिसने नवजीवन ।
कूड़े-कचरे गंदे मैले से, प्रदूषित होते देख रहा है।
दिये थे फल-फूल-कंदमूल, या जड़ी-बूटी शहद-अमृत ।
रासायनिक जहर से मरते, अपनी संतान देख रहा है।
सोने-चाँदी-कोयले, हीरे के अन्धे लालचियों को।
धनसम्पत्ति के दरिन्दों को, सीने में वार करते देख रहा है।
सीमेंट के जंगल से बनते, ग्लोबल वार्मिंग को देख रहा है।
धरती माँ के विनाश से, भगवान को भी रोते देख रहा है।
पहाड़ की दर्दभरी कहानी:
सन् 1990 के बाद से भूमंडलीकरण ने समाज का चेहरा-मोहरा बदल दिया है। काफ़ी तेज़ी से परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। कुछ वर्षों पहले हमें कई जगहों पर हराभरा मौसम दिखाई दिया। कई जगहों पर पशु-पंछी अधिक मिले हैं। वहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य जान से भी ज्यादा खूबसूरत दिखता था। किंतु आज वहाँ का सौंदर्य समाप्त होता दिखाई दे रहा है। इसी वजह से प्राकृतिक समतोल भी बिगड़ गया है। मौसम चक्र में काफ़ी परिवर्तन मिल रहे हैं। धूप और बारिश के चक्र में भी बदल पाए गए हैं। इसका प्रमुख कारण माना जा सकता है कि "मनुष्य द्वारा प्रकृति का नष्ट करना।" मनुष्य ने जितने पेड़ो और पहाड़ों को काटा हैं। उसे तैयार होने के लिए हजारों वर्षों का समय लगता है। जो कृत्य मनुष्य ने किया है वह उसके विनाश का ही कारण बन गया है। ऐसे गंभीर मुद्दों को आदिवासी कविता ने उठाया है। डॉ. भगवान गव्हाड़े ने अपनी कविता 'पहाड़' में इस प्रकार का चिंतन किया है। उन्होंने ने इस कविता के माध्यम से पहाड़ की दुखभरी कहानी को चित्रित किया है। एक पहाड़ अपनी वेदना को बता रहा है।
वे पहाड़ कविता का संदर्भ देकर कहते हैं कि जिन पहाड़ों को उनकी घरों से बुलडोजर से उजाड़ दिया है और वहाँ पर इमारतें और सड़कें बनाई है। वहीं पहाड़ आज आंसू बहा रहा है। यह सब घटित होने से पानी का स्तर भी कम होता जा रहा है। इसी वजह से पहाड़ के आँसू भी सूखते हुए मिल रहे हैं। एक समय ऐसा था जब पहाड़ ने हरे रंग के शालू पहने हुए थे लेकिन वहीं पहाड़ आज निर्वस्त्र होता दिख रहा है। जिस पहाड़ ने अपनी गोद मे पशु-पंछियों को खेलते-कूदते देखा है। वहीं पहाड़ आज अपने आँसू बहा रहा है। जो मनुष्य इन पहाड़ों के सानिध्य में गुफाओं का सहारा लेकर अपने बच्चों का पालन-पोषण करता था। उसी मनुष्य ने आज पहाड़ को खोदा है। इसकी वजह से उनके ही बच्चे आज बेघर हो गए हैं।जिन झरनों और नदियों ने मानव जाति का जीवन 'नवजीवन' बनाया है। उसी मनुष्य ने पहाड़ का क़त्ल किया है। यहाँ का सभी परिवेश आज मनुष्य ने दूषित किया है। जिसके कारण पहाड़ रो रहा है। जिन जंगलों ने फल, कंदमूल, जड़ी-बूटी, शहद अमृत जैसे पदार्थों का निर्माण किया। वहीं जंगल आज रासायनिक जहरीले पदार्थों से दूषित होकर रो रहे हैं। जिसकी वजह से आज पृथ्वी पर जी रही छोटी-छोटी संतानें अपाहिज हो रही है। मनुष्य ने अपने स्वार्थ के लिए पहाड़ के पेट से सोना, चाँदी, कोयला, हीरे जैसी धनसंपदा पाकर उसके पेट में छुरा घुसा दिया है। वृक्षों और पहाड़ को काटते देखकर वह स्वयं ही रो रहा है।
इस प्रकार आदिवासी कवि डॉ. भगवान गव्हाड़े ने अपनी 'पहाड़' कविता में पर्यावरण की त्रासदी का जीवंत चित्रण किया है।
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