महादेव टोप्पो का काव्य स्वर :मुख्यधारा व आदिवासी
-Dr. Dilip Girhe
'पहाड़ की नजरों से'
तुम्हें जो लिखना है लिखो
जो छापना है छापो
नंगी, अधनंगी तस्वीरें हमारी
मैं कुछ नहीं बोलूँगा !
भला ! लिखना ?
हल, कुदाल, तीर चलाने वालों को देता है शोभा ?
तुम कहो !
जो कहना चाहते हो !
कहो मैं जंगली हूँ! मैं मान लूँगा !
तुम कहो मैं वनवासी हूँ, आदिवासी हूँ
अनुसूचित जाति, जनजाति हूँ
मान लूँगा
तुम कहो सूचीबद्ध सूची से बाहर के आदमी हो
मैं मान लूँगा।
कहो दलित, नीग्रो, अश्वेत या कुछ और मैं चुप मान लूँगा
इस देश में नहीं, पूरे विश्व में
तुम्हारे पास कलम है, तिजोरी है, सत्ता है, कानून है, अखबार है सबसे बड़ी बात कि तुम्हारे पास पुलिस है, सेना है
आखिर क्या नहीं है तुम्हारे पास ?
और ऐसे में मेरी हिम्मत कहाँ कि कुछ कहूँ ?
तुम चाहे जो कुछ कहो मेरे बारे में मान लूँगा माई-बाप !
सिवा इसके कि कहो तुम- स्वयं को मनुष्य।
-महादेव टोप्पो
कविता का स्वर:
आदिवासी कविता के भाषा सौंदर्य में प्रतीकों का भरपूर मात्रा में प्रयोग मिलता है। प्रत्येक कवि अपनी कविता में प्रतीकों के माध्यम से संबोधन करता है। आदिवासी साहित्य की काव्य विधा को पढ़ने से पता चलता है कि इन कवियों ने अपनी कविताओं में अधिकतर प्राकृतिक प्रतीकों का प्रयोग किया है। वे प्रकृति के किसी भी हिस्से को प्रतीकों में खोजते हैं। झारखंडी कवि महादेव टोप्पो ने भी अपनी कविताओं में प्राकृतिक प्रतीक को आधार बनाकर कविता में अपनी बात कहीं है। उन्होंने 'पहाड़ की नजरों से' कविता का संदर्भ बताकर 'आदिवासी और मुख्यधारा' की संकल्पना पर बात की है। उन्होंने इस कविता में 'पहाड़' को मुख्यधारा के प्रतीक के रूप में विश्लेषित किया है।
वे समाज की मुख्यधारा पर काव्य के शब्दों में प्रहार करते हैं। वे कहते हैं कि "तुम्हें जो लिखना है वो लिखों तू जो बोलना है बोलो!" हम देखते हैं कि अंडमान निकोबार जैसे क्षेत्रों में निवास कर रहे आदिवासी समुदायों की नंगी अधनंगी तस्वीरों को खींचा जाता। आज यह क्षेत्र पर्यटकों को घूमने के हिसाब से खुला कर दिया है। मुख्यधारा का समाज वहाँ के जारवा आदिवासी समूह की पर्यटक की दृष्टिकोण तस्वीर खींचते हैं। इसका भी संदर्भ कवि महादेव टोप्पो अपनी कविता में देते हैं। आज मुख्यधारा की दृष्टिकोण में आदिवासी को वनवासी, जंगली, बर्बर जैसे अनेक नामों से पुकारा जा रहा है। संविधान की भाषा में आदिवासी को 'अनुसूचित जनजाति' का दर्जा दिया गया। कवि इन सभी बातों से अपनी सहमति दर्शाते हैं। इसके अलावा वे कहते हैं कि "अगर आपने कहा तुम दलित, नीग्रो या अश्वेत हो तब भी मैं मान लूंगा। क्योकि आपके पास लिखने का अधिकार है। सत्ता है। सरकार है। कानून है। अखबार है और सबसे बड़ी बात पुलिस है। इसीलिए मेरी हिम्मत नहीं होती कि आपसे कुछ बोले। लेकिन एक बात अवश्य कहना चाहूंगा कि यह सब लिखने या कहने से पहले आप एक 'मनुष्य' है।"
इस प्रकार से महादेव टोप्पो ने 'पहाड़ की नजरों से' कविता में मनुष्य को इंसानियत की भूमिका निभाने की बात कहीं है।
आशा है कि आपको यह कविता और उसकी व्याख्या अच्छी लगी होगी। इस पोस्ट को शेयर करें। साथ ही ब्लॉग से ऐसे ही नई-नई पोस्ट को पढ़ने के लिए ब्लॉग को निम्नलिखित लिंक के माध्यम से फ़ॉलो करें...धन्यवाद!
इसे भी पढ़िए...
- मराठी आदिवासी कविता में संस्कृति व अस्मिता का चित्रण
- महादेव टोप्पो की काव्यभाषा:मैं जंगल का कवि
- जिन्होंने कभी बीज बोया ही नहीं उन्हें पेड़ काटने का अधिकार नहीं है:उषाकिरण आत्राम
- महादेव टोप्पो की 'रूपांतरण' कविता में आदिवासी की दशा और दिशा
- डॉ. राजे बिरशाह आत्राम की कविता में आदिवासी अस्मिता का संकट
- आदिवासी हिंदी कविता का संक्षिप्त परिचय
- आदिवासी कविता क्या है ?
- हिंदी एवं मराठी आदिवासी काव्य की पृष्ठभूमि
- हिंदी और मराठी आदिवासी कविताओं में जीवन-संघर्ष
- समकालीन मराठी आदिवासी कविताओं में वैचारिक चुनौतियाँ(विशेष संदर्भ: मी तोडले तुरुंगाचे दार)
- ‘आदिवासी मोर्चा’ में अभिव्यक्त वैश्वीकरण की असली शक्लें
- 19 वीं शताब्दी के अंतिम दशकोत्तर आदिवासी साहित्य में विद्रोह के स्वर’
- इक्कीसवीं सदी की हिंदी-मराठी आदिवासी कविताओं में जीवन संघर्ष
- हिंदी काव्यानुवाद में निर्मित अनुवाद की समस्याएँ व समाधान (विशेष संदर्भ : बाबाराव मडावी का ‘पाखरं’ मराठी काव्य संग्रह)
- तुलनात्मक साहित्य : मराठी-हिंदी की अनूदित आदिवासी कविता
- समकालीन मराठी आदिवासी कविताओं में वैचारिक चुनौतियाँ (विशेष संदर्भ : माधव सरकुंडे की कविताएँ)
- आदिवासी काव्य में अभिव्यक्त आदिवासियों की समस्याएँ
- आदिवासी कविता मानवता के पक्षधर का दायित्व निभाती है
ब्लॉग से जुड़ने के लिए निम्न ग्रुप जॉइन करे...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें