गुरुवार, 24 अक्टूबर 2024

निर्मला पुतुल की कविता में बेघरों के सपनों का वर्णन !! बेघर सपने काव्य संग्रह !! आदिवासी कविता (Nirmala putul ki kavita mein begharon ke sapanon ka varanan)

निर्मला पुतुल की कविता में बेघरों के सपनों का वर्णन  

-Dr.Dilip Girhe 


बेघरों के सपनों से जुड़ा मेरा घर

मैं घर बना रही हूँ 

घर मुझे बना रहा है 

मैं कह नहीं सकती 

लेकिन बात दरअसल यह है कि 

मैं एक घर बना रही हूँ 

घर, जिसमें मेरे सपने जुड़े हैं 

मेरे अरमानों की ईंट लग रही है जिसमें 

मैं घर बना रही हूँ 

और देख रही हूँ 

आसपास बने ऊँचे-ऊँचे घर 

उन ऊँचे-ऊँचे घरों से 

झाँक रहे हैं ऊँचे-ऊँचे लोग 

उन ऊँचे-ऊँचे लोगों की नज़रों में 

मैं एक छोटा सा, एक अदना सा आदमी हूँ 

मैं नहीं देख पा रही हूँ उनके 

ऊँचे-ऊँचे मकानों के अन्दर क्या चल रहा है 

लेकिन वे सब देख रहे हैं मुझे 

कि मैं कहाँ से उठा रही हूँ ईंट 

कहाँ धर रही हूँ 

किससे क्या बोल-बतिया रही हूँ 

सब देख रहे हैं चुपचाप अपने खिड़की से 

वे सब के सब चिंतित हैं कि

वे उनके ऊँचे-ऊँचे घरों के बीच

मेरा यह छोटा सा घर 

कि उनका घर के नक्शे और 

सामने का दृश्य बिगाड़ न दे 

और मैं चिंतित हूँ कि 

मेरा यह छोटा सा घर 

उनकी ऊँची-ऊँची इमारतों के बीच खो न जाए 

ठीक मैं मेरी तरह जैसे बड़ी-बड़ी 

ऊँचे कद वाले लोगों के बीच 

मैं गुम हो जाती हूँ 

ऐसे में जब उनके ऊँचे-ऊँचे घरों के बीच 

मेरा यह छोटा सा घर उपहास का पात्र बना हुआ है 

बावजूद मैं पूरी हिम्मत व बहादुरी से जुटी हूँ 

बनाने में अपना यह घर इस उम्मीद और विश्वास के साथ 

कि एक दिन मेरा यह घर 

उन तमाम बेघर लोगों को 

घर बनाने का हौसला देगा 

जिनकी आँखों में वर्षों से 

अपना घर बनाने का 

सपना पल रहा है।

-निर्मला पुतुल 

कविता में विस्थापन का दर्द :

आदिवासी समुदायों ने प्रकृति के गोद में रहते हुए अनेक सपने संजोए थे। किंतु जब से उनके सामने विस्थापन की समस्या ने अपना घर जमाया तब से उनको अपने ही घरों से विस्थापित करके उन्हें बेघर होना पड़ा। ऐसी अनेक समस्याओं के कारण आदिवासी कवियों को 'विस्थापन के दर्द' को साहित्य में उपस्थित करना पड़ा रहा है। निर्मला पुतुल ने भी ऐसे ही बेघर आदिवासियों के सपने किस प्रकार से टूटे हैं। इसका वर्णन 'बेघर सपने' काव्य संग्रह में किया है। वे ऐसे ही 'बेघरों के सपनों से जुड़ा मेरा घर' में अपनी बेघर बस्ती की कहानी व्यथा को रेखांकित करती है। वर्तमान में आदिवासियों के सामने विस्थापन एक प्रमुख समस्या है। प्रमुखतः झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बहुल राज्यों में दिखाई देती है। इसी वजह से उस प्रदेश के कवि इन जैसी समस्या व्यक्त करते हैं। कवयित्री निर्मला पुतुल भी अपना घर बेघरों से सपनों से जुड़ा एक घर मानती है। इन बेघरों के सपने क्या क्या हो सकते हैं। ऐसे कई संदर्भ वे अपनी कविता में देती है। 

वे कविता में कहती है कि मैं एक घर बना रही हूँ या घर ही मुझे बना रहा है, यह कुछ भी समझ नहीं आ रहा है। वे आगे कहती है कि वास्तव में एक घर बना रही हूँ वह घर जो घर बेघर हो गया है। उस घर का मैं पुनः निर्माण कर रही हूँ। उस घर में कई अरमान भरे हुए हैं। यह घर मैं उस प्रदेश में बना रही हूँ जहाँ पर बड़ी-बड़ी इमारतें बन गई है। इन सबसे हटकर मेरा घर होगा, जिस घर के सपने अगल होगे। यह सब घर  बनाते हुए वे लोग मुझे देख रहे हैं। जिन्होंने बेघर किया है। मैं क्या कर रही हूँ किससे बात कर रही हूँ वे लोग सब देख रहे हैं। इसीलिए वे चिंतित दिखाई दे रहे हैं कि बेघरों के भी घर बन रहे हैं वे भी नए सपनों के साथ। इस मेरे घर के नक्शा बिगड़ न जाए इस वजह से भी कवयित्री चिंतित है। मेरा यह छोड़ा सा ही घर होगा लेकिन इस घर में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति का विश्वास, उम्मीद, अस्मिता, अस्तित्व, आशा आकांक्षा उन तमाम बेघरों के सपनों से जुड़ी हुई है। इसलिए मेरे जैसा घर बनाने के लिए उन तमाम बेघरों को हौसला देने के लिए यह 'छोटासा घर' एक सपना है

इस प्रकार से कवयित्री निर्मला पुतुल ने अपनी कविता में बेघरों के सपनों को व्यक्त किया है

संदर्भ:

निर्मला पुतुल-बेघर सपने-पृष्ठ-७६-७७ 

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