निर्मला पुतुल की कविता में मुसाफिर के पदचिन्ह
Dr. Dilip Girhe
मुसाफिर
मुसाफिर आता है
मुसाफिर जाता है
उसके पाँव के निशान रास्ते में बचे रह जाते हैं
उसके पाँव के निशान उसकी मंजिल की कथा कहते हैं
पता नहीं इधर से गुजरने वाले
मुसाफिर की मंजिल क्या थी
यह तो मैं कह नहीं सकती
लेकिन अपनी यात्रा की
एक पड़ाव पर जिस रात वह
जहाँ ठहरा था, वहाँ उसकी
उपस्थिति गंध आज भी मौजूद है
इन मुसाफिरों का क्या है
आते हैं जाते हैं
और हर बार एक कथा छोड़ जाते हैं
जो जीवन के इतिहास के
पन्नों में दर्ज हो जाता है
जब-जब भी स्मृतियों की मीठी बयार
बहती है, तब-तब इतिहास के पन्ने
फड़फड़ाते हैं और मुसाफिर के पदचिन्हों
से ऐसा लगता है एक दिन वह
मुसाफिर फिर लौटेगा
और यात्रा के उस पड़ाव पर फिर ठहरेगा
जहाँ आज भी उसकी उपस्थिति गंध
उसके लौटने का इंतज़ार कर रही है।
-निर्मला पुतुल
काव्य संवेदना:
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में मुसाफ़िर आते हैं और जाते हैं। उस मुसाफ़िर के पाँव के निशान मात्र वहीं के वहीं रह जाते हैं। वे निशान एक प्रगति का मार्ग दिखाते हैं और अपनी मंजिल तक पहुचाने के लिए मदद करते हैं। कवि निर्मला पुतला ने उनके साथ जो भी मुसाफ़िर आकर चले गए हैं। उनके कुछ पदचिन्हों को 'मुसाफ़िर' कविता में चित्रण किया है। वे कहती है कि जो भी मुसाफ़िर आते हैं अपने जीवन में उनके पाँव के निशान अनेक प्रकार की कहानियां बताकर चले जाते हैं। कुछ मुसाफ़िर हमारे सामने से भी गुजर जाते हैं। किंतु उनकी मंजिल क्या है समझ में नहीं आती है। किंतु हमें जो भी अनुभूति मिली उसके आधार पर हम उस मुसाफ़िर का चित्र रेखांकित कर सकते हैं। वह जहां भी रुका हो उसके पदचिन्ह हमें याद आते हैं।
ऐसे अनेक मुसाफ़िर मनुष्य के जीवन में आते हैं और चले जाते हैं। ऐसे मुसाफ़िर इतिहास के पन्नों पर लिखित दस्तावेज बन जाते हैं। हमें जब-जब उनकी याद आती है तब तब हम उन पन्नों को पलट सकते हैं। वह पन्ने पलटे हैं ही हमें उनकी संपूर्ण पदचिन्हों की स्मृति सामने आती है। जैसे लगता है एक दिन वह मुसाफ़िर फिर से मिल जाएगा। यह मुसाफ़िर केवल मनुष्य ही नहीं रहता है। वह पेड़, पशु, पक्षी, पदार्थ, पहाड़ नदी या फिर प्रकृति का कोई भी घटक हो सकता है। इसीलिए अपने जीवन के यात्रा के पड़ाव पर ऐसे अनेक मुसाफ़िरों का मिलने पर स्वागत करना चाहिए। तभी जीवन में सुख और दुःख दोनों बाजूओं का पता चलता है।
संदर्भ:
निर्मला पुतुल -बेघर सपने -पृष्ठ -29-30
इसे भी पढ़िए...
- मराठी आदिवासी कविता में संस्कृति व अस्मिता का चित्रण
- महादेव टोप्पो की काव्यभाषा:मैं जंगल का कवि
- जिन्होंने कभी बीज बोया ही नहीं उन्हें पेड़ काटने का अधिकार नहीं है:उषाकिरण आत्राम
- महादेव टोप्पो की 'रूपांतरण' कविता में आदिवासी की दशा और दिशा
- डॉ. राजे बिरशाह आत्राम की कविता में आदिवासी अस्मिता का संकट
- आदिवासी हिंदी कविता का संक्षिप्त परिचय
- आदिवासी कविता क्या है ?
- हिंदी एवं मराठी आदिवासी काव्य की पृष्ठभूमि
- हिंदी और मराठी आदिवासी कविताओं में जीवन-संघर्ष
- समकालीन मराठी आदिवासी कविताओं में वैचारिक चुनौतियाँ(विशेष संदर्भ: मी तोडले तुरुंगाचे दार)
- ‘आदिवासी मोर्चा’ में अभिव्यक्त वैश्वीकरण की असली शक्लें
- 19 वीं शताब्दी के अंतिम दशकोत्तर आदिवासी साहित्य में विद्रोह के स्वर’
- इक्कीसवीं सदी की हिंदी-मराठी आदिवासी कविताओं में जीवन संघर्ष
- हिंदी काव्यानुवाद में निर्मित अनुवाद की समस्याएँ व समाधान (विशेष संदर्भ : बाबाराव मडावी का ‘पाखरं’ मराठी काव्य संग्रह)
- तुलनात्मक साहित्य : मराठी-हिंदी की अनूदित आदिवासी कविता
- समकालीन मराठी आदिवासी कविताओं में वैचारिक चुनौतियाँ (विशेष संदर्भ : माधव सरकुंडे की कविताएँ)
- आदिवासी काव्य में अभिव्यक्त आदिवासियों की समस्याएँ
- आदिवासी कविता मानवता के पक्षधर का दायित्व निभाती है
ब्लॉग से जुड़ने के लिए निम्न ग्रुप जॉइन करे...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें