गुरुवार, 17 अक्टूबर 2024

'जंगल जल रहे हैं' काव्य की व्यथा: रामदयाल मुंडा-!! आदिवासी कविता !! कलम को तीर होने दो-रमणिका गुप्ता !! Ramdayal Munda ki kavita jangal jal rahe hai !! Tribal Poem !!

 


 'जंगल जल रहे हैं' काव्य की व्यथा: रामदयाल मुंडा

-Dr. Dilip Girhe


'जंगल जल रहे हैं'

जंगल जल रहे हैं 

पहाड़ जल रहे हैं 

बनाए रखो, प्रिय चूहा शीशम का घर 

बनाए रखे प्रिय, बनाए रखो


नदियाँ सूख रही हैं 

स्रोत सूख रहे हैं 

बनाए रखो प्रिय केकड़ा पत्थर का द्वार 

बनाए रखे प्रिय, बनाए रखो


लोग तुम्हें पकड़ लेंगे 

लोग तुम्हें दबोच लेंगे 

बनाए रखो प्रिय चूहा शीशम का घर 

बनाए रखो प्रिय चूहा शीशम का घर 

बनाए रखो प्रिय, बनाए रखो


लोग तुम्हें पका खाएँगे 

लोग तुम्हें भून चबाएँगे 

बनाए रखो प्रिय केकड़ा पत्थर का द्वार 

बनाए रखो प्रिय, बनाए रखो


बनाए रखो प्रिय, बनाए रखो 

बनाए रखो प्रिय, बनाए रखो।

                          -रामदयाल मुंडा

जगंल की व्यथा 'जंगल जल रहे हैं':

आदिवासी काव्य विधा आदिवासी के हर एक सुख-दुःख की अभिव्यक्ति को प्रस्तुत करती है। कवि का काव्य लिखने का मुख्यालय प्रकृति गोद है। वह प्रकृति के इर्दगिर्द ही रहा और अपना जीवनयापन करता आ रहा है। रामदयाल मुंडा आदिवासी साहित्य के वरिष्ठ कवि रहे हैं। आज प्रकृति की हर वस्तु विनाश की ओर अग्रसर है। इसी वजह से कवि उनकी व्यथा को लिख रहा है। रामदयाल मुंडा आदिवासी जनमानस के पुत्र रहे हैं। उनकी कविता का विषय झारखंड प्रदेश के साथ समग्र भारतवर्ष की समस्या, बेरोजगारी, भुखमरी, पहचान का संकट आदिवासी विस्थापन, बाजारवाद, आदिवासी जीवन शैली, भाषा, संस्कृति और इतिहास जैसे मुद्दों को प्रस्तुत करना है। उन्होंने 'जंगल जल रहे हैं' नामक कविता में जल-जंगल-ज़मीन के मुद्दों को उठाया है। जलते हुए जंगलों के कारण आदिवासी जीवन ही नहीं बल्कि प्रकृति का हर एक जीव परेशान एवं चिंता में है। उनकी परेशानी को कवि न काव्य में लिपिबद्ध किया है।

कवि 'जंगल जल रहे हैं' कविता में जलते जंगल का दुःख बताते हैं। आज प्रकृति के अनेक घटक विनाश की कगार पर हैं। इसी कारण कवि चिंतित है। ठेकेदारों को जंगल की एक-एक चीज़ अच्छी लगने लगी है। हजारों वर्षों से जीवन जी रहा पेड़ आज उनकी मौत का शिकार बन चुका है। आज जिस तरह से जंगलों को उजाड़ दिया जा रहा है। इसी कारण उसके इर्दगिर्द के सभी जीव-जंतु भी मर रहे हैं। कवि ने प्रस्तुत कविता में 'चूहा' और 'केकड़ा' इन दो जीवों को प्रतीक बनाकर प्रकृति को बचाने के लिए संदेश दिया है। 'चूहा' यह उभयचर प्राणियों को बचाने के लिए प्रतीक बनकर आता हैं। तो 'केकड़ा' जलचर प्राणियों को बचाने का संकेत हैं। कवि 'चूहे' को जलते हुए जंगलों से बचाने के लिए शीशम का घर बनाने को कहते हैं। ताकि कितनी बड़ी आग आ जाये उससे उसका संरक्षण हो सकें। इसी प्रकार से ज़मीन के ऊपर जितने भी जीव-जन्तु जीवन जी रहे हैं। वे चूहे की तरह शीशम के घर में रहकर अपनी जीव बचा सकें। चाहे इनको लोग कितने भी क्यों पकड़ या दोबोच लेंगे इससे वे बच सकेंगे। जलचर प्राणियों की भी कवि ने चिंता की वे 'केकड़े' को पत्थर का घर बनाने को कहते हैं। इसी वजह से उसकी जान बच सकें। इसी तरह से जलचर प्राणी जितने भी है। उनको इसका ध्यान रखना आवश्यक है। तभी वे यहाँ के मानव जाति से अपनी रक्षा कर सकते हैं। साथ ही प्रकृति का भी संरक्षण किया जा सकता है। अन्यथा लाखों-करोड़ों प्राकृतिक जीव-जंतु ऐसे ही दबोच या उसे पकड़कर मारा जाएगा।

इस प्रकार से कवि रामदयाल मुंडा ने 'जंगल जल रहे हैं' कविता में जलते जंगलों का दुःख अभिव्यक्त किया है। इससे पता चलता है कि आज जंगल जलने और नदी सूखने से हजारों 'चूहे' और 'केकड़े' मर रहे है।

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