आधुनिकता की लपलपती जीभ गाँव की सभ्यता को डंसने को आतुर है: सरिता सिंह बड़ाईक
-Dr. Dilip Girhe
'खतरा'
शहर के शिकंजे में फंसता
गाँव
स्वयं में सहमता सिमटता गाँव
पराजित
सादगी और भोलापन
विजयी
दलाली और दोगलापन
आधुनिकता की लपलपाती
जीभ
डंसने को आतुर
लड़ना होगा
इस विषैले सर्प का विष-तोड़
खोजना होगा
नहीं तो
पड़ जायेगी हमारी अस्मिता खतरे में
देनी पड़ेगी
हमारी पहचान और संस्कृति को
एक शहर के फैलने में
कई गाँवों की
आहुति।
-सरिता सिंह बड़ाईक
कविता का स्वर:
गाँव की सभ्यता और शहरी सभ्यता में आज काफी बदलाव हुआ है। गाँव की सभ्यता आंचलिक सभ्यता होती है। फणीश्वरनाथ रेणु के शब्द सबको पता है कि यहाँ "फूल भी है यहाँ धूल भी।" फूल और धूल का संगम गाँव की सभ्यता में दिखाई देता है। आधुनिकता ने गाँव के फूल और धूल को मिटाने के लिए खतरा पैदा किया। यह खतरा गाँव की सभ्यता, भाषा, संस्कृति और अस्मिता को मिटा रहा है। गाँव की संस्कृति धीरे-धीरे नष्ट होती जा रही है। यानी उस पर अस्मिता का संकट मंडराने लगा है। गाँव की बोलती सभ्यता ने शहर में आकर मुक रूप धारण किया है। ऐसे ही अनेक खतरों को आदिवासी कविता प्रकट करती है। नागपुरिया भाषा की कवयित्री सरिता सिंह बड़ाईक ने अपने 'खतरा' कविता में गाँव की सभ्यता पर आ रहे खतरे को व्यक्त किया है।
वे लिखती हैं कि आज का गाँव आधुनिकता के शिकंजे में फंसा है। गाँव ने तेजी से शहरीकरण की धारणा को बढ़ावा दिया है। शहर के शिकंजे में फंसे गाँव ने आज विकराल रूप ले लिया है। वह शहर में जल्द गति से सिमट रहा है। जिस गाँव में सादगी और बालपन जैसी विशिष्टता पाई जाती थी। वहीं गाँव ने आज दलाली और दोगलापन जैसे गुण विशिष्ट गुण को प्राप्त किया है। इन सभी कारणों से कहा जाता है कि आधुनिकता की लपलपपाती हुई जीभ गाँव की सभ्यता को डंसने के लिए बहुत आतुर दिख रही है। जैसे कोई विषैला सांप डंसने से बहुत तेज़ी से जहर शरीर में फैल जाता है। वैसे ही यह आधुनिकता की जीभ ने डंसने से गाँव की सभ्यता में जहर फैल रहा है। इस फैलते हुए जहर को रोकना होगा नहीं तो हमारी बची हुई भाषा, अस्मिता, संस्कृति के सभी धरोहर नष्ट हो जाएंगे। हमारी पहचान और अस्मिता को देनी पड़ेगी आहुति।
इस प्रकार से कवयित्री सरिता सिंह बड़ाईक ने अपनी कविता में अस्मिता पर आए संकटों की चर्चा की है। इन संकटों से बचने का मार्ग उनकी कविता हमें दिखाती है।
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