ग्रेस कुजूर की कविता में स्त्री मुक्ति के प्रतीक:पीपल का पेड़
-Dr. Dilip Girhe
'पीपल का पेड़'
काश !
मैं पीपल का पेड़ होती
धागों में लिपटी होती
सांझ सवेरे देहरी पर
दीए जलते
पर मैं न जलती
न चीरहरण होता
और
न ही की जाती खंडित
'टाँगी' और दराती से
काश !
मैं पीपल का पेड़ होती !
-ग्रेस कुजूर
कविता में स्त्री मुक्ति के प्रतीक:
भारतीय समाज में स्त्री ने मुक्ति पाने के लिए अनेक संघर्ष किए हैं। फिर वह पुरुष प्रधान संस्कृति से मुक्ति नहीं पा सकी। स्त्री का हजारों वर्षों का इतिहास देखा जाये उसने पुरुषों से बराबर कार्य किया है। किंतु पितृसत्तात्मक पद्धति ने स्त्री को दुय्यम दर्जा दिया है। आदिवासी कविता में स्त्रीवादी काव्य ने स्त्री के पक्षों को उठाया है। आज स्त्री का पारिवारिक व सामाजिक शोषण जारी है। साथ उसके साथ अन्याय-अत्याचार, अपहरण जैसी घटनाएं आज भी हम देख रहे हैं। कवयित्री ग्रेस कुजूर ने 'पीपल का पेड़' कविता के माध्यम से जंजीरों में जकड़ी स्त्री और आज़ाद स्त्री के पक्षों पर बात की है। वे इस कविता में 'पीपल का पेड़' को एक प्रतीकात्मक रूप में पेश करती है।
कवयित्री 'पीपल का पेड़' कविता के माध्यम से बताना चाहती है कि आज़ाद स्त्री का जीवन और एक कैद जीवन जी रहे स्त्री के जीवन में काफ़ी अंतर है। आज़ाद स्त्री सामाजिक रूढ़ि-प्रथा, परंपरा को तोड़कर जीवन जीती हुई मिलती है। तो एक जंजीरों में जकड़ी स्त्री गुलाम पद्धति का जीवन जीती दिखती है। जिस प्रकार से भारतीय समाज में पीपल के पेड़ की धागे से पूजा की जाती है और वह पेड़ बहुत खुशहाल जीवन जीता है। उसी का संदर्भ देते हुए कवयित्री कहना चाहती है कि पीपल के पेड़ की जिंदगी कितनी खुशहाल है। ना ही उसको कभी जलाया जाता है, ना ही कभी उसका अपहरण होता है। किंतु भारतीय स्त्री का जीवन बिल्कुल इसके विपरीत है। उसको आज खुले आम जलाया भी जाता है और उसका अपहरण भी होता है। इसीलिए कवयित्री कहती है कि "काश! मैं पीपल का पेड़ होती तो मेरी पूजा की जाती। मेरे चारों ओर दिए जलते मैं कितने आनंद से जीवन जीती। ना ही मुझे कभी जलाया जाता ना ही मेरा कभी अपहरण होता।"
इस प्रकार कवयित्री ग्रेस कुजूर भारतीय नारी को गुलामी की जंजीरों से तोड़कर मुक्त जीवन जीने के अधिकारों को व्यक्त करती है।
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