शनिवार, 14 दिसंबर 2024

आलोका कुजूर की कविता में खजूर की चटाई का महत्त्व (Aaloka kujur ki kavita mein khajur ki chatai ka mahattv -tribal poem-kalam ko teer hone do)

आलोका कुजूर की कविता में खजूर की चटाई का महत्त्व

-Dr. Dilip Girhe


खजूर की चटाई

नानी के गाँव में 

खजूर के पत्ते 

और उसकी चटाई 

आज जीवित है 

सर्दियों में ओढ़ने बिछाने को 

मेहमानों के स्वागत को 

सम्मानपूर्वक बैठाने को


आँधी तूफान में खोजते हैं खजूर की चटाइयाँ 

बरसात की झड़ी में भी 

ढकने को होती है मात्र 

खजूर की ही चटाई 

हर किसी के पास


खलिहान में बैठने की हुई इच्छा तो 

मिट्टी पर डाल कर चटाई 

इतमिनान से बूढ़ी औरतें 

जीवन को गा-गा कर सुनाती हैं- 

खजूर के पेड़ और पत्तों के अनुभव


शहर को वापस आते हुए 

चटाई की सुगन्ध 

महसूस करते हैं हम 

खजूर की चटाई

दिसम्बर की रात 

जाड़े के साथ 

कंपकंपी और ठंड 

बढ़ती थी रात में 

चूल्हे पर लकड़ी 

जला कर ठंड से करते 

लडाई 

सर्दियों के बाद भी 

खजूर की चट्टाई देती थी साथ 

आधी रात को


गाँव के सब लोगों ने 

खजूर के पत्तों के साथ 

जीवन जीना सीख लिया था 

बड़ी होने पर मैं 

याद करती हूँ अब 

अपनी नानी की घर-कथा 

जब नानी अपनी 

खजूर की चटाई से 

ढंक कर हमें सुलाती थी- 

महसूस करती हूँ

उस गाँव के मुर्गा-मुर्गी को 

पक्षी और घास के दिनों को 

बेल और आम की महक 

याद आती है 

तो याद आ जाती है 

खजूर की चटाई...!

      -आलोका कुजूर-कलम को तीर होने दो


काव्य संवेदना:

आदिवासी हस्तकलाएँ आज जीवित है। उन कलाओं का मानवी जीवन में काफ़ी महत्व भी रहा है। आज भी हम जब आदिवासी बहुल प्रदेशों के गाँवों जाते हैं तो लकड़ी, बांस, मिट्टी, पत्थर या फिर खजूर जैसे अनेक प्राकृतिक संसाधनों से हस्तकलाओं को देखते हैं। कुछ आदिवासी प्रदेशों में तो इन वस्तुओं को बेचकर वहाँ के आदिवासी अपनी जीवनयापन करते हैं। यानी कि वह हस्तकला आदिवासी जीवन का उपजीविका का साधन भी है। यह कलाएँ काफी मेहनत करके बनाई जाती है। आदिवासी लोग जितनी मेहनत से यह कलाएँ बनाते हैं। उतना उस कलाओं का दाम नहीं रहता है। एक साधारन सी कीमत वे उन कलाओं बेचते हैं। आलोका कुजूर ने 'खजूर की चटाई' कविता में खजूर की चटाई की उपयोगिता का वर्णन किया है। 

वे कविता के माध्यम से कहना चाहती है कि बचपन में नानी के गाँव हम बहुत मौज मस्त करते थे। अब भी नानी के साथ की यादें जिंदा है। नानी के गाँव की चटाई इसका जीवंत दस्तावेज है। आज मैं अपने नानी के गांव की चटाई को याद करती हूँ जो सर्दियों के दिनों में घर में आए मेहमानों स्वागत करने तथा उनको सम्मानपूर्वक बैठाने में होता है। आँधी तूफान में भी खजूर की चटाइयों का खोजते हैं। बरसात की झड़ी में छत से टपकते पानी को रोकने के लिए भी इसका उपयोग है। इतना ही नहीं जब हम खेत खलिहान में जाते तो मिट्टी पर कहीं भी बैठने के लिए जब गीत-संगीत याद आ जाते हैं। वह एक अलग-सा आनंद है। बहुत दिन जब हम शहर में रहकर गांव आ जाते हैं। आज भी हमें नानी की बुनी हुई चटाई की याद आती है। यह चटाई बहुपयोगी है। ठंड, बारिश, बैठने जैसे कई इसके उपयोग हैं। इसकी उपयोगीता को देखते हुए गांव के सभी लोगों ने खजूर के पेड़ के साथ एक मजबूत रिश्ता बना लिया है। जो पेड़ एक अच्छा जीवन जीने के लिए अपना अंग देता है। आज भी वह दिन सबको याद आ जाता है जिनकी नानी खजूर की चटाई सुलाती थी। गाँव के मुर्गा-मुर्गी, पशु-पक्षियों, बेला-लताओं और आम के पेड़ों सबको खजूर की चटाई की याद आती है। 

इस प्रकार से आलोका कुजूर ने अपनी कविता 'खजूर की चटाई' में खजूर की चटाई की उपयोगिता को स्पष्ट किया है। 


संदर्भ:

रमणिका गुप्ता-कलम को तीर होने दो

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