अनुज लुगुन की कविता में ग्लोब या भूमंडलीकरण
-Dr. Dilip Girhe
ग्लोब
मेरे हाथ में कलम थी
और सामने विश्व का मानचित्र
मैं उसमें महान दार्शनिकों
और लेखकों की पंक्तियाँ ढूँढ़ने लगा
जिन्हें मैं गा सकूँ
लेकिन मुझे दिखाई दी
क्रूर शासकों द्वारा खींची गयी लकीरें
उस पार के इंसानी खून से
इस पार की लकीर और
इस पार के इंसानी खून से ग्लो
उस पार की लकीर
मानचित्र की तमाम टेढ़ी-मेढ़ी
रेखाओं को मिलाकर भी
मैं ढूँढ़ नहीं पाया
एक आदमी का चेहरा उभारने वाली रेखा
मेरी गर्दन ग्लोब की तरह झुक गयी
और मैं रोने लगा
तमाम सुने-सुनाए, बताए
तर्कों को दरकिनार करते हुए
आज मैंने जाना
ग्लोब झुका हुआ क्यों है?
-अनुज लुगुन -कलम को तीर होने दो
काव्य संवेदनशीलता:
वैसे तो ग्लोब यानी पूरे ब्रह्मांड फैले पृथ्वी के क्षेत्र को कह सकते हैं। युवा कवि अनुज लुगुन लिखते हैं कि जब मेरे हाथ में कलम थी तो सामने पृथ्वी पर जीवन जी रहे सभी प्राणी जीव और मैं उन प्राणी जिओ में खोज रहा था दार्शनिकों और लेखकों को। ताकि उन दार्शनिकों एवं लेखकों को की वे प्रशंसा कर सकें। किंतु यब बात तो दूर ही रह चूंकि है। इसके जगह कवि को क्रूर शाषक ने जो लकीरें खींची थी वह दिखाई दे रही थी। जिन लकीरों पर खून का पानी बह रहा हो। वह भी खून से ही।
फिर भी कवि अनुज लुगुन इन पृथ्वी के मानचित्र पर वे लकीरें खोज रहे हैं जिन लकीरों पर न खून की नदियां बह रही हो और न ही वहाँ पर इंसान किसी का खून कर रहा हो। ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी खून की लकीरे वह आदमी-आदमी द्वेष का भाव निर्माण करती है। ऐसी लकीरें दिखाई देने पर कवि के आँखों आँसू आ जाते हैं। और उनकी गर्दन भी झुक जाती है। यह सब जानने समझने के बाद पता चलता है कि आज ग्लोब क्यों झुक गया है।
इस प्रकार से कवि अनुज लुगुन ने ग्लोब कविता में भूमंडलीकरण के प्रभाव पर बात की है।
संदर्भ
रमणिका गुप्ता-कमल को तीर होने दो
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