शनिवार, 7 दिसंबर 2024

जसिंता केरकेट्टा की कविता में एक गाँव की शाम (Jasinta kerketta ki kavita mein ek gaon ki shyam-अंगोर काव्य संग्रह)


जसिंता केरकेट्टा की कविता में एक गाँव की शाम

Dr. Dilip Girhe


गांव की एक शाम  

वो लकड़ी ढोकर उतरती है पहाड़ से 

उसके पीछे धीरे-धीरे सूरज भी उतरता है। 

दोनों को उतरते देखती है चुपचाप पहाड़ी नदी 

और उसकी सांसों में शाम उतर आती है।


पहाड़ से उतर नीचे, झुक कर पहाड़ी नदी में 

वो मारती है पानी के छींटे चेहरे पर 

और सूरज भी पोछता है पसीना 

नदी के आंचल से।


घर पहुंच आंगन में, लकड़ी का बोझा पटक 

वो घुस जाती है घर के अंदर 

और सूरज छिप जाता है, घर के पिछवाड़े।


शाम में वो जोरती है लकड़ी 

आंगन में बने मिट्टी के चूल्हे में। 

चूल्हे से निकलता है धुंआ 

और पेड़ों की झुरमुट से झांकता 

चांद खांस उठता है अचानक, 

लड़की दौड़कर थपथपाती है 

चांद की पीठ।


इधर रातभर होती है ठंडी 

चूल्हे में लकड़ी की राख, 

उधर, रात की चादर में धीरे से 

धरती समेटने लगती है अपने पांव 

और बड़ी बेफिक्री से गाढी नींद में 

उतर जाता है पूरा गांव ।।

            -जसिंता केरकेट्टा (अंगोर काव्य संग्रह)


काव्य  संवेदना:

प्रत्येक गांव की आँचलिक विशेषता होती है। ऐसे ही आँचलिक विशेषताओं पर कवि की लेखनी बोलती रही है। आदिवासी काव्य में आँचलिक विशेषताओं के अनेक तत्व मिलते हैं। जिसे कवि ने अपने अनुभूति के आधार पर चित्रित किया है। निजी अनुभव के अनुसार जब कवि लिखता है, तब वह निजी अनुभव हर के जीवन में कुछ जुड़े होते हैं। इसी वजह से कविता में सामाजिक यथार्थ का गुण मिलता है। इसी यथार्थ के कारण ही साहित्य जीवंत लिखित दस्तावेज है। काव्य विधा आज के पाठकों की लोकप्रिय विधा रही  है। क्योंकि जब कवि के जीवन कुछ वास्तविक घटना घट जाती है तो वह उसे लिपिबद्ध करने के लिए मजबूर हो जाता है। चाहे वह घटना सुखद या दुःखद क्यो न हो। कवयित्री जसिंता केरकेट्टा ने अपनी कविता 'गांव की एक शाम' अपने गांव के एक शाम का वर्णन किया है।

वे कहती है कि एक गांव की शाम ऐसी है जिसमें शाम को कोई लकड़ी ढोकर पहाड़ से उतरता है। ऐसे में इस वक्त नदी चुपचाप पहाड़ के सानिध्य में बहती है।नदी के हर एक हलचल में शाम के आँचलिक दृश्य मौजूद है। सूरज भी दिन भर धूप दे दे कर थक जाता है। वह भी नदी के आँचल में बसकर अपना पसीना पोछने लगता है।  वह पहाड़ के पीछे जाकर अपना सिर छुपाने लगता है। घर पहुँची महिलाएं अपने सिर से लकड़ी का पोझ जमीन पर पटक देती है। और घर में जाकर चूल्हा जलाने की तैयारियों में लगती है। मिट्टी के चूल्हे में लकड़ियां जोर कर भोजन की तैयारियां  शुरू होती है। जब चूल्हे से धुआं निकलता है तो सूरज अपना सिर छिपकर चाँद अपना सिर ऊपर करता है। इसी मौहोल में घर के सभी सदस्यों का आनंद गगनचुंबी दिखता है।  जब रात भर ठंड महसूस होती तो गाँव के लोग लकड़ियां जलाकर लकड़ी की राख बनाकर चादर में से ठंड का आनंद उठाते हैं। इसी वक्त गांव बेफिक्री से नींद में रहता है। उसे कोई भी मनुष्य जाति की चिंता नहीं महसूस होती है।

इस प्रकार से कवयित्री जसिंता केरकेट्टा ने गांव की एक शाम कविता में गाँव के आँचलिकता के वैशिष्ट्य स्पष्ट किये हैं।


संदर्भ:

जसिंता केरकेट्टा-अंगोर काव्य संग्रह


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