निर्मला पुतुल ने तलाशी है अपनी कविता में सुख- दुःख की तरंगें
-Dr. Dilip Girhe
मैं, मेरा दुःख और समुद्र
(समुद्र किनारे टहलते हुए)
समुद्र के किनारे खड़ी हूँ और उसे देख रही हूँ
समुद्र की उठती तरंगें बार-बार मेरी तरफ आ रही हैं
जिसे देखकर मुझे लग रहा है
कि यह मेरे भीतर से उठ रही तरंगें हैं
कैसी विडम्बना है कि एक तरंग
समुद्र में उठ रही है और एक मेरे भीतर
मुझे पता है कि दोनों तरंगें
कभी मिल नहीं सकतीं
बावजूद मुझे लग रहा है कि
दोनों एक-दूसरे से मिलने के लिए
उछल रही हैं
मानो दोनों का दुःख एक हो और
दोनों अपना-अपना दुःख सुनाने के लिए मचल रही हों
कैसे बताएँ कि हम यह सोचकर
समुद्र के पास गये थे कि
मैं अपना सारा दुःख समुद्र में उड़ेल दूँगी और
समुद्र मेरे दुःखों को किसी
नाव में भर उस पार ले जाएगा
जहाँ दुःखों के पहाड़ के बीच
सुख का सूरज उगता है
लेकिन यह क्या, कि समुद्र मेरा दुःख सुनने के बजाय
अपना ही दुःख सुनाने लगा मुझे
जिसे देखकर मैं अपना दुःख कह नहीं पाई
और वापस लौट आई अपने दुःखों को
मुट्ठियों में भरकर
ऐसे में तब मुझे लगा कि एक मैं ही
दुःखी नहीं हूँ इस पूरे संसार में
बल्कि हर आदमी के अपने-अपने दुःख हैं
जो अपने दुःखों को मुट्ठियों में छुपाए
घूम रहा है सुख की तलाश में।
-निर्मला पुतुल (बेघर काव्य संग्रह)
काव्य का भावार्थ:
कवयित्री निर्मला पुतुल समुद्र के किनारों पर खड़ी होकर समुद्र की तरंगे बार बार देख रही है। वह तरंगे उनके मन दुःख के भीतर भी देख रही है। जिस प्रकार से मनुष्य के भीतर दुःख की तरंगें निकलती है उसी प्रकार समुद्र के पानी के भीतर निकल रही तंरगें भी उसके दुःख का ही प्रतीक होगी। यह जग जाहिर है कि समुद्र की तरंगें और मनुष्य की विडंबना की तंरगें कभी भी एक नहीं हो सकती है। फिर भी वह दोनों तंरगें एक दूसरे से मिलने के लिए आतुर है। वे तरंगे दोनों का दुःख एक-दूसरे में समाहित करना चाहते हैं।
कवयित्री कहती है कि समुद्र और मनुष्य की दुःख की तंरगें एक समान दिखाई देती है। दोनों ही अपना-अपना दुःख बताना चाहती है। कवि इसी वजह से समुद्र के पास गई है कि वे अपना दुःख समुद्र को बता पाए। वह अपना सारा दुःख समुद्र में बहा देना चाहती है। और समुद्र को अज्ञा देना चाहती है कि मेरा दुख किसी नाव में बिठाकर उस पार लेकर जाए। जिसे मेरा दुःख कुछ हद तक कम हो सकें। जिस दुःख का के पहाड़ पर सुख का सूरज उगता है उस दुःख के पहाड़ के बीच सुख का सूरज उगता है। किंतु हुए है उल्टा समुद्र मेरा दुःख सुनने के बजाय अपना ही दुःख मुझे बता रहा है। जिस दुःख को देख कर मैं अपने स्वयं का ही दुख भूल गई। यह समुद्र का दुख देखकर मैं अपना दुख मुठ्ठी में लेकर लौट आई हूँ। तब मुझे लगा कि इस संसार में केवल मुझे ही दुःख नहीं है। इस प्रकृति के सानिध्य में हर एक वस्तु का सुख दुःख है। लेकिन ये अपना दुख कभी नहीं दिखाते हैं जिस प्रकार मनुष्य अपने सुख -दुःख को बताए फिरता रहता है।
इस प्रकार से कवयित्री निर्मला पुतुल ने अपने सुख दुख की तलाश समुद्र के लहरों के माध्यम से तलाशने की कोशिश की है।
संदर्भ
निर्मला पुतुल-बेघर सपने काव्य संग्रह
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