वाहरु सोनवणे की कविता में सामाजिक प्रतीक 'कांटे'
-Dr. Dilip Girhe
कांटे
अनजाने में
जिंदगी को चुभने वाले कांटे
गुपचुप चुभते रहते, चुभते रहते-
गुमसुम !
जानते हैं सब कुछ पर नहीं बूझते कुछ भी
वे राह के कांटे
जब हम ही चुभने-कचोटने लगते उन्हें
तभी वे
राहों के कांटे
खुलेआम चुभने-
कचोटने लगते हैं हमें
वर्ना, गुलशन बहार !
-वाहरु सोनवणे (पहाड़ हिलने लगा है)
काव्य संवेदना:
साहित्य के काव्य विधा में भी कवि ने प्रतीकों का प्रयोग बहुमात्रा किया है। प्रतीक वह होते हैं जो संसार में किसी भी रूप में देखे जाते हैं। चाहे वह प्रकृति का कोई भी हिसा क्यों न हो। ऐसे प्रतीक आदिवासी कविताओं में दिखाई देते हैं। जो समाज के हर एक घटक के साथ जुड़े हुए हैं। मराठी के आदिवासी साहित्य के एक मूर्धन्य हस्ताक्षर कवि वाहरु दादा सोनवणे ने भी अपनी कविताओं में ऐसे प्रतीकों का वर्णन किया है। वे समाज के हर एक स्तर जानने समझने के बाद काव्य में इस प्रकार के प्रतीकों को रेखांकित करते हैं। 'कांटे' कविता में भी उन्होंने समाज को चुभने वाले कांटे और प्रकृति के इर्दगिर्द पाए जाने वाले कांटे दोनों के गुणों के माध्यम से काव्य लिखा है। कांटों का गुण ही है चुभना। इसी गुण को कवि बताना चाहते हैं।
समाज में जीवन जीते समय मनुष्य जीवन कुछ ऐसे लोग सानिध्य में आ जाते हैं। अनजाने में दुःख पहुचाते है। यह दुःख उनको समझ में नहीं आता। इसे कवि के शब्दों में गुमसुम दुःख कहा जाता है। यह दुःख मनुष्य को पहुंचता तो है लेकिन इसका एहसास नहीं होता। जब यह दुःख खुलेआम चुभने लगता है। तब उस मनुष्य को उसका एहसास होता है। फिर यह चुभते हुए कांटे खून निकालते हैं तब मनुष्य को वह दुःख समझता है। फिर वह भावनाहीन हो जाता है और ऐसे चुभने वाले कांटों को परिचय करता है।
इस प्रकार कवि वाहरु सोनवणे कांटे कविता को प्रतीकात्मक रूप में अभिव्यक्त करते हैं।
संदर्भ
वाहरु सोनवणे-पहाड़ हिलने लगा है-अनुवाद निशिकांत ठकार
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