आलोका कुजूर की कविता में झारखंड का भविष्य
Dr. Dilip Girhe
दिल्ली में है झारखंड
दिल्ली में
ठोकर खा रहा
फुटपाथ पर
झारखंड का भविष्य
घर छोड़ने पर किया मजबूर
गिरते-पड़ते जी रहा
अपनों से दूर
गुम हो रहे हैं सपने
दिल्ली की गलियों में
लूट रहे हैं अपने ही लोग
संस्कृति और परम्परा खो गयी है कहीं-
नगर में
बेचते हैं अपना श्रम-
बीच बाजार में
आस-पास के लोग
कहते हैं-
दिल्ली में ही है झारखंड ।
-आलोका कुजूर-कलम को तीर होने दो
काव्य संवेदना:
भारत में आज कई राज्यों ऐसी स्थिति बन चुकी है कि वहां के आदिवासी समुदाय रोजगार की तलाश में बड़े-बड़े महानगरों में जाकर बसे हैं। वहाँ पर वे जाकर बंधुआ मजदूर का काम कर रहे हैं। दिल्ली जैसे महानगर में भी झारखंड जैसे प्रदेश आज आदिवासी जाकर बसे हुए हैं। वे वहाँ पर फुटपाथ पर भी काम करते हुए नजर आ रहे हैं। ऐसी गंभीर समस्याओं को भी आदिवासी कविताओं लिपिबद्ध किया है। कवियत्री आलोका कुजूर अपनी कविता ' दिल्ली में है झारखंड' में ऐसी समस्याओं को प्रस्तुत करती है।
वे कहती है कि आज झारखंड का भविष्य दिल्ली की फुटपाथ पर बिखरा हुआ है। क्योंकि झारखंड जैसे आदिवासी बहुल राज्यों में आज भी हजारों आदिवासियों विस्थापित किया जा रहा है। मजबूरन उन्हें महानगरों में जाकर कम दाम में बंधुआ मजदूर बनाना पड़ रहा है। अपनी गाँव की मिट्टी से, अपने गाँव के लोगों से, अपनी अस्मिता से दूर जाकर वह शहर की दूषित हवा में अपना जीवन जी रहा है। तो जाहिर है कि आस पास के लोग कहते हैं कि झारखंड दिल्ली में बसा है।
इस प्रकार से कवयित्री आलोका कुजूर अपनी कविता में झारखंड के भविष्यवाणी के विभिन्न संदर्भ रेखांकित किए हैं।
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