शनिवार, 11 जनवरी 2025

निर्मला पुतुल की कविता में औरत का दर्द (Aadiwasi Kavita-beghar sapane)

निर्मला पुतुल की कविता में औरत का दर्द

-Dr. Dilip Girhe


औरत

सबकुछ सहती है 

मन ही मन गुनती है 

लकड़ी सी घुनती है 

आँसू पीती है

घूँट-घूँटकर जीती है 

मोम सी पिघलती है

कुछ न कहती है

रोज जन्मती मरती है

घर भर की पीड़ा हरती है

सबकी सुनती है

छण-छण जलती है

होंठों को सीती है

बिन तेल की बाती है

अधलिखी पाती है

मर्दों की थाती है।

-निर्मला पुतुल-बेघर सपने


काव्य संवेदना:

आज समाज में औरत कई भूमिकाओं को निभाती हुई मिलती है। सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक कई प्रकार के दायित्वों को वह संभाल रही है। वह सामाजिक अनेक पाबंदियों सहकर भी कई जिम्मेदारी के काम निभाती है। परिवारक संघर्ष तो उसके ससुराल आने से ही शुरू होता है। वह सबकुछ सहकर दुःख झेलती है। लेकिन अपना दुःख वह सभी को बता नहीं सकती है। इसीलिए उसकी अभिव्यक्ति मन ही मन गुनती रहती है। वह चाहकर भी कुछ बाते अभिव्यक्त कर नहीं सकती है। एक लकड़ी जिस प्रकार से मशीन में घुनती है। उसी प्रकार से औरत का जीवन भी घुनता रहता है। वह खुद के आँसू खुद ही पीती है। 

अपना जीवन घूँट घूँट कर जीवन जीने वाली औरत मोमबत्ती की तरह पिघल जाती है। यानी कि वह प्रसंग के अनुसार सभी बातों और कार्यों को समझ भी जाती है। फिर भी वह चुपचाप अपना जीवन जीती है। उसको कभी कभी यह भी महसूस होता है उसने कि कई बार जन्म लिया है। क्षण भर की पीड़ाओं का दुख-सुख क्षण भर में भूल जाती है और नई ऊर्जा के साथ नए काम करने लगती है। वह पल-पल दिए की बाती की तरह जलती रहती है। कई दुखों के सागर को वयः ओठों को सिलकर चुपचाप बैठती है। वह अधलिखि पाती और मर्दों की थाती के कर्तव्यों को भी निभाती है।


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