वंदना टेटे की कविता में जंगलों की वनसंपदा की महता
डॉ.दिलीप गिऱ्हे
काव्य की पृष्ठभूमि एवं संवेदनशीलता:
कवयित्री वंदना टेटे ‘आदिवासी जीवन और जंगलों का रिश्ता’ में इस बात को स्पष्ट करना चाहती हैं कि आदिवासियों की जीवन पद्धति में
जंगलों में उत्पन्न होने वाले पेड़-पौधों का बहुत महत्व है।“उनका
जीवन और उनकी पूरी संस्कृति ही खेती और जंगल पर आधारित है।”[1] इनमें महुआ, पलाश, कुसुम,
बेर, जामुन, केउंद,
आम, कटहल जैसे कई वनस्पतियों को आदिवासी जानते
हैं। उनकी संस्कृति इन सभी वनस्पतियों से जुड़ी हुई है। वे ये भी जानते हैं कि कौन
से पेड़-पौधे किस मिट्टी में, किस पहाड़ पर किस नदियों के
किनारे उगते हैं। बावजूद इसके आज कवियों, दार्शनिकों,
राजनीतिज्ञों, सभ्यताओं को पलाश की जरूरत है। वे आज
पलाश को जंगल से छोड़कर शहरों में या फिर किताबों में खोजते हैं। लेकिन उनको पता
नहीं है कि अब पलाश केवल काल्पनिक दुनिया में जी रहा
है। वह जंगलों के बगैर कहीं भीनहीं मिलने वाला है। आज वह एक काल्पनिक क्रांति का
प्रतीक बन गया है।वे ‘पलाश नहीं हैं जंगल’ कविता के माध्यम से जगलों की वनसंपदा की महत्ता को समझाती हैं-
पलाश नहीं हैं जंगल
“कवियों को
पलाश जरूरी है
वास्तविक दुनिया में
एक काल्पनिक क्रांति के लिए।
पर असभ्य आदिवासियों को
नहीं चाहिए पलाश
उन्हें चाहिए
महुआ, कुसुम, बेर
और केउंड से लदे जंगल
जामुन से गदराए छतनार पेड़
आम और कटहल से रस-रसाए वन प्रांतर
आदिवासी जानते हैं
पलाश शब्दों की नर्सरी में नहीं फूलते
उनके खिलने और टहटहने के लिए
मिटटी, पहाड़ और नदियाँ की जरूरत होती है
साहित्य का पलाश
कोई भी कहीं भी
यहाँ तक कि बंद कमरे की बेजान टेबल पर
रखी नोटबुक में भी खिला सकता है
पर 'जंगली' आदिवासी जानते हैं
असली पलाश
तो पटुस लो झाड़ों के बीच
महुआ और कुसुम के संग-संग ही खिलता है
पहाड़ों के साए में
नदियों से अठखेलियाँ करते हुए
आदिवासियों के जंगल
पलाश नहीं है
महुआ है
[1] विनोद कुमार. (24 February, 2019 03:01 pm IST). दिप्रिंट, केवल आदिवासी ही इस बात को समझते हैं कि प्राकृतिक जंगल उगाये नहीं जा सकते.https://hindi.theprint.in/opinion/where-the-tribals-live-forest-will-be-saved/46937/. 22 मार्च 2020 को देखा गया.
[2] टेटे, वंदना. (2015). कोनजोगा. राँची, झारखंड : प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन. पृ. 60-61
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