चंद्रमोहन किस्कू की कविता में नवी नवेली आशा की धरती का चित्रण
-Dr. Dilip Girhe
नव आशा की धरती
निराशा के आसमान में
एक दिन उदय होंगे ही सूर्य
फूटी छज्जा वाले घर से ही
दिखता है चन्द्रमा
परती और पथरीली ज़मीन भी
सब दिन एक जैसी नहीं रहेगी
शांति की खेती होगी ही
एक न एक दिन
आनंद के फूल खिलेंगे
एक दिन अति सुन्दर।
सहारा की कोख भी
सब दिन खाली नहीं रहेगी
वहाँ हरे घास उगेंगे
ठण्डे झरने फूटेंगे
धान के पौधे जैसी संतानें
सर हिलाकर नाचेंगी एक दिन।
पुरखों की बातें
झूठ नहीं होतीं कभी
निराशा के घन से
उगेंगे ही
नव किरण के साथ
नव आशा के सूर्यदेव।
नव आशा की धरती
हरी होगी, एक न एक दिन।
-चंद्रमोहन किस्कू-महुआ चुनती आदिवासी लड़की
काव्य संवेदना:
भारतीय समाज में हम देखते हैं कि किसी नव-नवेली दुल्हन की शादी हो जाती है, तो उसकी अपने ससुराल से बहुत आशा-अपेक्षा रहती है। उसी प्रकार की स्थिति कवि चंद्रमोहन किस्कू अपनी कविता 'नव आशा की धरती' के माध्यम से व्यक्त करते हैं। किंतु यह नव आशा आज प्रफुल्लित नहीं दिख रही है।आसमान के चारो ओर निराशा ही निराशा दिखाई दे रही है। उसी में सूरज की किरणें फूटे सज्जे से उगने की आशा भी दिखाई देती है। ऐसे में परती और पथरीली जमीन से चंद्रमा की निराशा भी हम देखते हैं तो सब ओर शांति की खेती हो रही है ऐसा हमें महसूस होता है। क्योंकि चन्द्रमा को शांतता का प्रतीक भी कहा जाता है। इसी शांतता के प्रतीक के उजाले से बहुत आशा पल्लवित होने का इंतजार कवि कर रहे हैं।
उसी आशा अपेक्षा में कवि चाहते हैं कि एक-न-एक दिन आनंद के फूल खिलेंगे। और जो जंगल से हरियाली उजड़ गई है उसकी जगह पर जरूर कुछ-न-कुछ घास-फूस उगेगी। आसपास सुखी हुई नदियां भी ठंड झरनों से बहने लगेगी। इससे आदिवासियों के खेतों की धान की फसल सिर हिला-हिलाकर नाचने-गाने लगेगी। जैसे कोई आदिवासी नृत्य पर समुदाय नाच रहा हो। यह सभी बातें एक-न-एक दिन सच होगी और इस धरती पर जो सूर्यदेव-चंद्रमा नाराज है वह खुश हो जायेगे और धरती पर चोरों ओर हरियाली ही हरियाली समा जाएगी।
इस प्रकार कवि चंद्रमोहन किस्कू अपनी कविता में नवी नवेली आशा की धरती की अपेक्षाओं को स्पष्ट करते हैं।
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