जसिंता केरकेट्टा के काव्य आदिवासी गाँव का चित्र
-Dr. Dilip Girhe
आदिवासी गाँव
क्या सोचता होगा
करम पर्व मनाने शहर से लौटा
गीतों में मदमस्त
पढ़ा-लिखा एक आदिवासी लड़का?
जब कोई उससे पूछे अचानक
पढ-लिख गए, अब कहां बसोगे?
लौटोगे शहर या फिर लौट आओगे गांव?
और उसने देखा एक बाढ़
शहरों से गांवों की ओर बढ़ रही,
लील रही गांवों को।
गांव के किसी टीले पर बैठा
वो आदिवासी लड़का
अब सोच रहा
कैसे संभलेगा इस बाढ़ में?
पास नहीं है
अस्तित्व रक्षक
शास्त्रों की कोई नाव।
कैसे बचेगी उसकी प्रकृति?
कैसे बचेगा उसका अस्तित्व?
तभी बाढ़ में बहकर पहुंचा
नई शुरूआत का उत्प्रेरक
कोई जवा का फूल
और करम की डाली
जिसके सहारे वह पहुंचेगा
अपने अस्तित्व के घर।
तब बाढ़ के बीचो-बीच
गाड़ कर करम डाली
बस गया कोई गांव--
शहर की बाढ़ पर जीवित
एक आदिवासी गांव !
-जसिंता केरकेट्टा-अंगोर (काव्य संग्रह)
काव्य संवेदना:
आज शहर और ग्राम में आदिवासी समुदाय बिखरा हुआ दिखाई दे रहा है। आदिवासी युवक भी शहर की ओर पढ़ाई-लिखाई के लिए अग्रसर हो रहे हैं। ऐसे ही आदिवादी लड़कों की कहानी जसिंता केरकेट्टा ने आदिवासी गाँव कविता में बताई है। वे एक लड़का जो शहर में पढ़ने लिखने गया है। वहीं लड़का जब करम पर्व मनाने अपने गाँव आता है। उसके मन में कई प्रकार के प्रश्न उठ रहे हैं। कि अब अपने गाँव में रहे या शहर में पढ़ने चले जाए। क्योंकि उसे एक तरफ शहर की ओर बढ़ रही बेरोजगारी की कतार और एक गाँव की तरफ बढ़ रही संस्कृति बचाने की कतार नजर आ रही है। उसके सामने एक तरफ नौकरी का प्रश्न है तो दूसरी तरफ अस्तित्व का प्रश्न है।
वह लड़का जब गाँव आता तो गाँव के टीले पर बैठकर सोचने लगता है। आधुनिकता की ओर जाए या अपना अस्तित्व बचाये। एक बाढ़ शहर की ओर दूसरी गाँव की ओर। वह लड़का सोचता रहता है कि शहर की बाढ़ में जाये या गाँव की बाढ़ में जाये। गाँव की बाढ़ प्रकृति बचाने व अपनी अस्तित्व की खोज की तरफ निकली थीं। वह लड़का अपना त्योहार मनाने अपने गाँव आया है। वह गाँव के बाढ़ में करम की डाली गाड़ कर अपने अस्तित्व की रक्षा करना चाहता था।
इस प्रकार से एक आदिवासी गाँव की कहानी को कवियत्री जसिंता केरकेट्टा ने 'आदिवासी गाँव' कविता प्रस्तुत की है।
Whatsapp Channel |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें