उषाकिरण आत्राम की कविता में स्त्री भ्रूणहत्या का विरोध
-Dr. Dilip Girhe
माँ! गर्भ में मत मार
माँ! मत मार गर्भ में
करती विनती बार-बार
जोड़कर दोनों हाथ...
माँ! मत मार गर्भ में....
लड़की तेरे पेट में, तू तनाव में
इस या उस कारण, करते कलह पिता हर क्षण
दादी, दादा, चाचा, चाची दिखाते आँखें सभी
गलत सलत औषधि, उतार ली तूने पेट में
तिलमिलाता छोटा-सा जीव, जहर घुल गया देह में
माँ मेरी! दे दे भीख - मत कर गर्भपात
माँ! मत मार गर्भ में!
सभी कहते, घर में नहीं चाहिए लड़कियाँ
खतरे में पिता की जान, बेड़ियाँ न रहें पाँव में
जहर की पुड़िया वे, खर्च की चिंता
तुझे सभी देते सलाह, मार दे अभी ही
मैं क्यों न रहूँ तेरे घर-दुआरे माँ?
मत ले अघोरी-औषधि ज्यादा
फड़फड़ाता-तिलमिलाता- आक्रोश मेरा गर्भ में
माँ मेरी ! पड़ती हूँ पैर जोड़ती हूँ हाथ
दे भिक्षा आँचल में माँ! मार मत गर्भ में!
हो जाऊँगी मैं तुम्हारा सहारा- जन्म लेने दे घर में
चांदनी की बेल बन कर दूँगी प्रकाश दोनों घर में
करूँगी सेवा सभी की, फूलूँगी बन चंदन बेल दुआरे
माँ! गर्भ में मत मार!
-उषाकिरण आत्राम -कलम की तलवारे अनुवाद-डॉ मिलिंद पाटिल
काव्य संवेदना:
समाज में आज भी स्त्री भ्रूणहत्या की परंपरा कायम मिलती है। पारंपरिक समाज लड़की के जन्म का स्वागत उतने उत्साह से नहीं करता, जितना लड़का जन्म पर किया जाता है। वास्तविक चित्र यह है कि वह लड़की ही लड़के को जन्म देती है। आज समाज की वास्तविकता यह है कि लड़के से ज्यादा लड़की बुढ़ापे में अपने माता-पिता का ख्याल रखती है। इसीलिए लड़की जन्म का स्वागत करना चाहिए। यह भ्रूणहत्या रोकना चाहिए। इसे रोकने के लिए कवि ने अपने कलम की तलवार चलाई है। कवयित्री उषाकिरण आत्राम ने 'माँ! गर्भ में मत मार' कविता में एक नन्ही अपने समाज व्यवस्था को आवाज दे रही है कि 'माँ मुझे मत मारो।'
लेखिका कहती है कि एक नन्ही-सी परी भारतीय समाज को आवाज दे रही है और स्त्री भ्रूणहत्या रोखने को कह रही है। वह समाज को हाथ जोड़कर बिनती कर रही है कि 'मुझे गर्भ में मत मारो' मैं जीना चाहती हूँ। सामाज में आकर परिवर्तन करना चाहती हूँ। आज हम देखते हैं कि समाज में लड़की जन्म पर घर के दादा-दादी, पिता, चाचा-चाची सब नाराज होते हैं। कोई भी लड़की के जन्म का स्वागत करने के लिए तैयार नहीं है। उस गर्भवती माता को गलत औषधि देकर उस बच्ची पेट में ही मार देते हैं। वह बच्ची वह नन्ही परी कह रही है कि इससे मेरा जीव घुल मिला रहा है। वह परी अपनी माँ से बिनती कर रही है कि तू तो मुझे बचा ले सब मुझे मारने को तुले हुए हैं। सभी एकजुट होकर कह रहे हैं कि घर में लड़की नहीं चाहिए। लेकिन उस नहीं-सी परी का गर्भ में ही आक्रोश फड़फड़ा रहा है और कह रहा है कि 'माँ मुझे मत मारो' मैं जन्म लेकर आप सभी का सहारा बनूँगी, सबके उजाले की चांदनी बनूँगी। आपकी जन्म भर सेवा करूंगी। ऐसी बिनती एक नन्ही परी समाज व्यवस्था को कर रही है।
इस प्रकार से 'माँ! गर्भ में मत मार' कविता में स्त्री भ्रूणहत्या का विरोध कवियत्री उषाकिरण आत्राम ने किया है।
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